Wednesday 26 August 2015

उत्तर गुप्त राजवंश और मालवा

प्रस्तुत आलेख का उद्देश्य छठी सदी ईस्वी के उत्तर भारत के प्रमुख उत्तर गुप्त राजवंशका एक संक्षिप्त, सरल एवं प्रामाणिक विवरण प्रस्तुत करना है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि इस कालखण्ड में भारत में बहुसंख्यक छोटे-बड़े राज्यों का उदय और अस्त देखने को मिलता है। इनमें कुछ ने तो सम्पूर्ण भारत की तत्कालीन राजनीति को न्यूनाधिक रूप से प्रभावित किया जबकि अधिकांश स्थानीय राजवंश एक सीमित परिक्षेत्र में ही उत्थित हुए और विलीन हो गये।

गुप्तोत्तर कालीन भारतीय इतिहास अनेक नवीन प्रवृत्तियों संक्रमण का काल था। इन नवीन प्रवृत्तियों ने छठी सदी ईस्वी से बारहवीं सदी ईस्वी तक के राजनैतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास को समान रूप से प्रभावित किया, जिसके परिणामस्वरूप युगान्तकारी परिवर्तन हुए। इस कालखण्ड में ‘आसमुद्र क्षितीशों’ की परम्परा समाप्त हो गयी। गुप्तों एवं वाकाटकों की साम्राज् सत्ता के विघटन के साथ ही भारत के राजनैतिक क्षितिज पर अनेक क्षेत्रीय राज्यों का उदय हुआ और सामन्तवादी व्यवस्था के अन्तर्गत बहुसंख्यक छोटे-छोटे स्थानीय राजवंश अस्तित्त्व में आये। इन्होंने अवसर पाते ही अपनी स्वतंत्र सत्ता की स्थापना कर राज्य विस्तार का कभी असफल तो कभी सफल प्रयत्न किया। इस प्रकार इस काल खण्ड सम्पूर्ण भारत में बहुसंख्यक स्थानीय राजवंशों के उत्थान और पतन का दृश्य देखने को मिलता है। स्वाभावतः सार्वभौम-सत्ता के स्वामी राजवंशों की तुलना में स्थानीय राजवंश सामरिक शक्ति एवं आर्थिक स्थिति, इन दोनों दृष्टियों से दुर्बल थे। दूसरे अपनी राज्यसीमाओं के विस्तार की आकांक्षा से वे परस्पर संघर्षरत भी थे। इन्होंने अपनी आन्तरिक दुर्बलताओं को ढकने के लिए आडम्बरपूर्ण जीवनशैली अपनायी।

विराट् उपाधियों द्वारा स्वयं का अलंकरण करना, अपने नीचे सामन्तों की विविध स्तरीय श्रेणियों का सृजन, अपव्ययपूर्ण निर्माण कार्यों में अभिरूचि और विलासितापूर्ण जीवन, सामन्तवाद के कुछ प्रमुख लक्षण थे, जिन्होंने समवेत रूप से एक ओर तो राजशक्ति को दुर्बल बनाया वहीं दूसरी ओर प्रजा की आर्थिक स्थिति को भी जर्जर कर दिया। उल्लेखनीय है कि सार्वभौम सत्ता के अभाव में व्यापारिक मार्ग असुरक्षित हुए और व्यापारिक गतिविधियां बाधित हुयीं। परिणामतः व्यापार और वाणिज्य के साथ-साथ उद्योगों का विकास भी अवरूद्ध हो गया। इसकाल में मुद्राओं के प्रचलन एवं उपयोग का आभाव स्पष्टतः नागर और वाणिज्य प्रधान अर्थव्यवस्था के ह्रास का सूचक है। अर्थव्यवस्था प्रधानताः कृषि पर अवलम्बित हो गयी। फलतः इस काल खण्ड में कृषकों की स्थिति भी दुर्दशाग्रस्त हो गई। स्पष्टतः राजनीतिक क्षेत्र में उत्पन्न अव्यवस्था ने समकालीन अर्थतंत्र को भी प्रभावित किया।

राजनीतिक एवं आर्थिक दौर्बल्य के युग में उत्तर भारत को विदेशी आक्रमणकारियों के हाथों भी पराजित और अपमानित होना पड़ा। उल्लेखनीय है कि हूणों का भारत पर पहला आक्रमण गुप्त सम्राट स्कन्दगुप्त के शासन काल में हुआ था, जिसमें हूण आक्रमणकारिय़ों को बुरी तरह पराजित होना पड़ा था। किंतु गुप्त सत्ता के अवसान काल में हूण आक्रमणकारी पुनः सक्रिय हो उठे थे। तोरमाण और मिहिरकुल के नेतृत्त्व में हूणों ने गुजरात और मालवा से लेकर गंगा की घाटी तक आक्रमण और विनाश का दृश्य उपस्थित किया। आगे चलकर हूणों ने पंजाब और मध्य भारत में अपने छोटे-छोटे राज्य भी स्थापित किये। हूण आक्रमण की ज्वाला के शमन के बाद आठवीं शताब्दी में सिन्ध, गुजरात और मालवा क्षेत्र पर अरबों के आक्रमण प्रारम्भ हुए। यद्यपि मलवा के गुर्जर प्रतिहारों ने अरब शक्ति के प्रवाह को रोकने का सफल रूप से प्रयत्न किया तथापि सिन्ध का क्षेत्र अरब आक्रमणकारियों के राजनैतिक प्रभुत्त्व में चला गया।

इसके कुछ ही समय पश्चात् पश्चिमोत्तर दिशा से तुर्क आक्रमण का संकट उत्पन्न हुआ। तुर्क आक्रमणकारियों का दबाव धीरे-धीरे पश्चिम में गुजरात के समुद्रतटवर्ती क्षेत्रों तक और पूर्व में गंगा की घाटी तक बढ़ता गया। सबसे पहले तुर्कों ने पश्चिमी पंजाब (आधुनिक पाकिस्तान) को अपने आधीन किया और उसके बाद उसके आक्रमणों की जो अनवरत् आंधी उठनी प्रारम्भ हुयी उसे रोकने में परस्पर ईर्ष्यालु और युद्धरत क्षेत्रिय राज्यों के अदूरदर्शी भारतीय शासक सर्वथा असफल सिद्ध हुए और धीरे-धीरे अपनी स्वतंत्रता भी खो बैठे। चाहमान, गाहड़वाल, चौलुक्य, चन्देल एवं परमार आदि राजवंशो के पतन से न केवल भारत के राजनैतिक इतिहास का एक युग समाप्त हुआ वरन् सांस्कृतिक परम्पराओं के समक्ष भी एक ऐसी चुनौती उपस्थित हुयी जिसने इतिहास की धारा को एक अकल्पनीय मोड़ दिया। यद्यपि नर्मदा के दक्षिण का भारत इस कालखण्ड में बाहृय आक्रमणों से मुक्त रहा तथापि इस क्षेत्र में भी स्थानीय राजवंश अपने गौरव, अभिमान और क्षेत्र विस्तार की महत्त्वाकांक्षा के कारण परस्पर संघर्षरत और सामन्तवादी प्रवृतियों से पीड़ित रहे।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि केन्द्रापसारी शक्तियों के अभ्युदय के कारण जहाँ देश की सांस्कृतिक एवं राजनैतिक एकता की भावना दुर्बल हुयी वहीं सांस्कृतिक जीवन की विविधता एवं वैभव में वृद्धि भी हुयी। इस कालखण्ड में मूर्तिकला एवं वास्तुकला की विविध शैलियां विकसित हुयीं, जिन्होंने अनेक उत्कृष्ट वास्तु संरचनाओं एवं कलाकृतियों को जन्म दिया। विविध स्थानीय भाषाओं, बोलियों का विकास प्रारम्भ हुआ तथा स्थानीय शासकों के संरक्षण में अनेक श्रेष्ठ काव्य कृतियों का सृजन हुआ। इस प्रकार हम देखते हैं कि राजनैतिक एवं सांस्कृतिक परिदृश्य अधिकांशतः नैराश्यपूर्ण होते हुए भी सर्वथा अवदान रहित नहीं था।

उत्तर गुप्त राजवंश
सुप्रसिद्ध गुप्त राजवंश का अवसान 550-51 ईस्वी में हुआ और इसके साथ ही उत्तर भारतीय राजनीति में रिक्तता के साथ-साथ अस्थिरता एवं अराजकता का वातावरण भी उत्पन्न हुआ। गुप्त सम्राटों के अधीन उत्तर भारत के विभिन्न क्षेत्रों में शासन करने वाले अनेक स्थानीय राजवंश इस रिक्तता को भरने के लिए अपनी शक्ति के संवर्धन में लग गये। परिणामतः उनमें प्रतिस्पर्धा उत्पन्न हुयी, जिसने पारस्परिक संघर्षों को जन्म दिया। कतिपय सामन्त राजवंश मगध और उसके पार्श्ववर्ती क्षेत्रों पर अधिकार स्थापित कर साम्राज्यवादी शक्ति बनने का स्वप्न देखने लगे इनमें उत्तर गुप्त, मौखरि एवं थानेश्वर के पुष्यभूति राजवंश का नाम यहाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यद्यपि छठी शताब्दी ईस्वी के उत्तरार्द्ध में उत्तर भारतीय राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाने वाले सभी राजवंशों के सन्दर्भ में प्रचुर सूचनाएं उपलब्ध नहीं हैं तथापि आभिलेखिक एवं साहित्यिक स्रोतों से उत्तर गुप्त, मौखरी एवं पुष्यभूति राजवंश के सन्दर्भ में अपेक्षाकृत अधिक सूचनाएं उपलब्ध हैं। अतएव इतिहासकारों ने इन राजवंशों का इतिहास उपलब्ध साक्ष्यों के समवेत विवेचन के आधार पर प्रमाणिक रूप से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। गुप्तोत्तरकालीन इतिहास का विवरण प्रस्तुत करते हुए इस आलेख में भी क्रमशः उत्तरगुप्त राजवंश का इतिहास प्रस्तुत कर रहे हैं।

उत्तर गुप्त राजवंश के इतिहास को प्रकाशित करने वाले अभिलेखों में आदित्यसेन का अफसढ़ अभिलेख तथा जीवित गुप्त द्वितीय का देववर्णाक अभिलेख विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त आदित्यसेन के समय के दो अभिलेख शाहपुर और मन्दार नामक स्थानों तथा विष्णुगुप्त के काल का एक अभिलेख मंगराव नामक स्थान से प्राप्त हुआ है। किंतु ऐतिहासिक दृष्टि से ये विशेष सूचना प्रदायी नहीं हैं। यहाँ यह ध्यातव्य है कि ये सभी लेख बिहार प्रान्त से प्राप्त हुए हैं। उदाहणार्थ अफसढ़ अभिलेख गया जिले में स्थित अफसढ़ नामक स्थान में मिला है, जो इस वंश के प्रथम शासक कृष्ण गुप्त से लेकर आदिसेन तक के काल के ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख करता है। इससे हमें आदित्यसेन तक उत्तरगुप्त राजवंशावली का ज्ञान तो होता ही है साथ ही इससे उत्तरगुप्त मौखरी सम्बन्धों पर भी रोचक प्रकाश पड़ता है। देववर्णाक अभिलेख बिहार प्रान्त के शाहाबाद (आरा) जिले के देववर्णाक नामक स्थान से मिला है।

इस अभिलेख को प्रकाश में लाने का श्रेय कनिंघम महोदय को है। उन्होंने 1880 ईस्वी में इसे प्राप्त किया था। इस अभिलेख से उत्तरगुप्त राजवंश के अंतिम तीन शासकों देव गुप्त, विष्णु गुप्त एवं जीवित गुप्त द्वितीय के काल के इतिहास के सम्बन्ध में सूचनाएं मिलती हैं। इस प्रकार अफसढ़ एवं देववर्णाक से प्राप्त अभिलेख एक साथ दृष्टि में रखने पर हमें इस वंश के ग्यारह शासकों का अविच्छिन्न इतिहास ज्ञात हो जाता है। चूँकि कृष्ण गुप्त इस वंश का प्रथम शासक तथा जीवित गुप्त द्वितीय इस वंश का अन्तिम शासक था। अतः सम्प्रति इस राजवंश का सम्पूर्ण इतिहास न्यूनाधिक रूप से ज्ञात है, तथापि इस वंश के इतिहास के सम्बन्ध में अभी भी अनेक ऐसी सूचनाएँ हैं जो विवादस्पद बनी हुई हैं। जिनके सम्बन्ध में उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर कोई निर्णायक मत व्यक्त करना दुष्कर है।

उत्पत्ति एवं आदि राज्य

उत्तर गुप्त राजवंश का संस्थापक कृष्ण गुप्त को अफसढ़ अभिलेख में ‘सदवंश’ में उत्पन्न बताया गया है। इससे केवल इतना ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वह किसी उच्चकुल से सम्बद्ध था। इससे अधिक उत्तर गुप्तों की उत्पत्ति के संबंध में हमें कोई सूचना नहीं मिलती। इस वंश के अधिकांश शासकों के नाम के साथ ‘गुप्त’ शब्द जुड़ा हुआ है। अतः कतिपय विद्वानों के द्वारा यह सम्भावना व्यक्त की गई है कि ये चक्रवर्ती गुप्त राजवंश से सम्बन्धित रहे होंगे। किंतु यह सम्भावना निर्मूल प्रतीत होती है। क्योंकि यदि ये चक्रवर्ती गुप्तों से सम्बद्ध होते तो इनके लेखों में निश्चय ही गर्व पूर्वक इस बात का उल्लेख किया गया होता। तो भी उल्लेखनीय है कि इस वंश के सभी राजाओं के नाम के अन्त में गुप्त शब्द नहीं मिलता।

ध्यातव्य है कि इस वंश के सर्वाधिक शक्तिशाली शासक का नाम आदित्यसेन मिलता है। सम्भवतः उत्तर गुप्त राजवंश, सम्राट गुप्तों के आधीन शासन करने वाला एक सामन्त राजवंश था। क्योंकि इस वंश के प्रथम शासक कृष्ण गुप्त को केवल नृप उपाधि प्रदान की गई है तथा इसके उत्तराधिकारी हर्ष गुप्त के नाम के साथ केवल आदर सूचक ‘श्री’ शब्द का प्रयोग मिलता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि चक्रवर्ती गुप्तों से पृथक करने के लिए ही इतिहासकारों ने इस वंश को परवर्ती गुप्त वंश अथवा उत्तर गुप्त वंश कह कर सम्बोधित किया है। कुछ इतिहासकारों ने इस नामकरण पर आपत्ति भी की है। सुधाकर चट्टोपाध्याय का सुझाव था कि इस वंश का नामकरण उनके संस्थापक कृष्ण गुप्त के नाम पर करना चाहिए तथा इसे ‘कृष्ण गुप्तवंश’ कहा जाना चाहिए।

गुप्त राजवंश अथवा उत्तर गुप्त राजवंश अब इतिहासकारों के बीच अधिकांशतः स्वीकृत और बहुमान्य हो चुका है। उत्तर गुप्तों का मूल क्षेत्र कौन सा था ? यह विषय आज भी विवादास्पद बना हुआ है। इस राजवंश के पश्चात्वर्ती शासकों आदित्यसेन, विष्णु गुप्त एवं जीवित गुप्त द्वितीय के अभिलेख मगध क्षेत्र से ही प्राप्त हुए हैं। जिनसे यह इंगित है कि इन तीन शासकों का शासन मगध क्षेत्र पर व्याप्त था। अतः फ्लीट आदि विद्वानों ने यह मत व्यक्त किया है कि इस राज्यवंश का मूल क्षेत्र भी मगध ही रहा होगा।1 इसके विपरीत डी. सी. गांगुली, आर. के. मुकर्जी, सी. बी. वैद्य, हार्नले एवं रायचौधरी आदि अनेक विद्वानों का यह विचार है कि इस वंश के लोग मूलतः मलवा के निवासी थे जो हर्षोत्तर काल में मगध के शासक बने।2 मालवा को उत्तर गुप्तों का मूल क्षेत्र मानने वाले विद्वान का मुख्य तर्क यह है कि हर्षचरित में माधव गुप्त का उल्लेख मालवराज पुत्र के रूप में हुआ है। जबकि अफसढ़ अभिलेख में माधव गुप्त को महासेन गुप्त का पुत्र कहा गया है। दोनों को ही स्रोतों में माधव गुप्त को हर्ष का मित्र कहा गया है।

हर्षचरित के अनुसार वह हर्ष का बाल सखा था जबकि अफसढ़ अभिलेख के अनुसार वह हर्ष देव के निरन्तर साहचर्य का आकांक्षी था। इन दोनों स्रोतों को साथ-साथ देखने से हर्षचरित के मालवराज और आदित्यसेन के पितामह महासेन गुप्त की एकरूपता प्रमाणित होती है। यहां यह भी ध्यातव्य है कि जीवित गुप्त द्वितीय के देववर्णाक अभिलेख के अनुसार मगध पर पहले मौखरी सर्ववर्मा और अवन्तिवर्मा का अधिकार था, जो उत्तर गुप्त वंश के शासक दामोदर गुप्त और महासेन गुप्त के समकालीन थे। इस बात की भी प्रबल सम्भावना है कि मगध का क्षेत्र सर्ववर्मा के पिता ईशानवर्मा के भी आधीन रहा हो, जो उत्तर गुप्त वंशी शासक कुमार गुप्त का समकालीन था। क्योंकि ईशानवर्मा के हड़हा अभिलेख में ईशानवर्मा को आन्ध्रों, शूलिकों तथा गौड़ों का विजेता कहा गया है और गौड़ की विजय मगध क्षेत्र पर अधिकार के बिना सम्भव नहीं प्रतीत होती। इन सभी तथ्यों को दृष्टि में रखने पर पूर्वी मालवा के क्षेत्र को ही उत्तर गुप्तों का मूल क्षेत्र मानना युक्ति संगत लगता है।

कृष्ण गुप्त 

असफढ़ अभिलेख के अनुसार उत्तर गुप्त वंश का प्रथम शासक कृष्ण गुप्त था। अभिलेख के अतैथिक होने के कारण कृष्ण गुप्त का शासनकाल सुनिश्चित रूप से निर्धारित नहीं किया जा सकता तथापि इस दिशा में हमें ईशानवर्मा के हड़हा अभिलेख से सहायता मिलती है, जिसकी तिथि 554 ईस्वी है। ईशानवर्मा उत्तर गुप्त वंशी नरेश कुमार गुप्त का शासनकाल स्थूलतः 540 ईस्वी और 560 ईस्वी के बीच निर्धारित किया जा सकता है। चूंकि कुमार गुप्त के पूर्व जीवित गुप्त प्रथम, हर्ष गुप्त और कृष्ण गुप्त इन तीन शासकों ने राज्य किया और यदि प्रत्येक शासक के लिए औसत बीस वर्ष का शासनकाल निर्धारित किया जाय तो कृष्ण गुप्त का शासन काल लगभग 480 ईस्वी से 500 ईस्वी के बीच रखा जा सकता है।

अफसढ़ अभिलेख में कृष्ण गुप्त को ‘नृप’ उपाधि से विभूषित किया गया है।1 इस समय गुप्त साम्राट बुध गुप्त शासन कर रहा था जिसका राजनैतिक प्रभाव मालवा क्षेत्र तक निश्चित रूप से व्याप्त था। बुध गुप्त के शासनकाल में ही हूण नरेश तोरमाण का पश्चिमी भारत पर आक्रमण हुआ। तोरमाण के शासन का प्रथम वर्ष का अभिलेख एरण से प्राप्त हुआ है। इससे यह विदित होता है कि 490 ईस्वी और 510 ईस्वी के बीच किसी समय तोरमाण का अधिकार मालवा क्षेत्र पर स्थापित हुआ। उसने बुध गुप्त के एरण क्षेत्र पर शासन करने वाले सामन्त मातृविष्णु के अनुज धान्यविष्णु को अपनी ओर से इस क्षेत्र का प्रशासक नियुक्त किया। किंतु मालवा क्षेत्र में हूणों की यह सत्ता निर्विध्न नहीं रही। क्योंकि एरण से ही प्राप्त 510 ईस्वी के भानु गुप्त के अभिलेख से ज्ञात होता है कि भानु गुप्त ने, जो एक महान योद्धा था एरण में एक भीषण युद्ध किया, जिसमें उसका मित्र गोपराज वीरगति को प्राप्त हुआ था और उसकी पत्नी अपने पति के शव के साथ सती हो गई थी।

समकालीन राजनीतिक परिस्थितियों को दृष्टि में रखते हुए इतिहासकारों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि भानु गुप्त और गोपराज ने यह युद्ध हूण नरेश तोरमाण के विरूद्ध ही किया होगा। स्पष्टतः मालवा क्षेत्र के राजनीतिक परिदृश्य में तेजी के साथ परिवर्तन हो रहा था जिससे मध्य भारत के परिव्राजक, उच्चकुल तथा एरण क्षेत्र के धान्यविष्णु जैसे सामन्त कुलों की गुप्त सम्राटों के प्रति स्वामिभक्ति शिथिल और संदिग्ध होती जा रही थी। सम्भवतः उन्हीं परिस्थितियों का लाभ उठाते हुए कृष्ण गुप्त ने पूर्वी मालवा में अपना छोटा सा राज्य स्थापित किया। यद्यपि अफसढ़ अभिलेख में यह कहा गया है कि उसकी सेना में सहस्रों की संख्या में हाथी थे तथा वह असंख्य युद्धों का विजेता था एवं विद्वानों से सदैव वह घिरा रहता था, किन्तु इसे औपचारिक प्रशंसा मात्र ही समझना चाहिए।


हर्ष गुप्त

कृष्ण गुप्त का उत्तराधिकारी उसका पुत्र हर्ष गुप्त था। इसका शासनकाल लगभग 500 ईस्वी से 520 ईस्वी तक था। अफसढ़ अभिलेख में कहा गया है कि इसने अनेक दुधर्ष युद्धों में विजय प्राप्त किया था। इसका शासन काल भी हूणों के आक्रमण के कारण उथल-पुथल का काल था। यह हूण आक्रान्ता तोरमाण और उसके पुत्र मिहिरकुल दोनों का समकालीन था। इस समय गुप्त सम्राट नरसिंह गुप्त बालादित्य हूणों के साथ संघर्ष में उलझा हुआ था। कुछ विद्वानों का यह मानना है कि नरसिंह गुप्त का शासन मगध क्षेत्र में ही सीमित था, जबकि बंगाल के क्षेत्र में कदाचित वैन्य गुप्त ने अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया था तथा मालवा क्षेत्र में सम्भवतः भानु गुप्त हूणों के विरूद्ध संघर्षरत था।

अफसढ़ अभिलेख में हर्ष गुप्त के लिए स्वतंत्र शासक के लिए प्रयुक्त होने वाली किसी उपाधि का प्रयोग नहीं है। अतः उसकी स्थित एक सामान्त की ही प्रतीत होती है। यह कहना कठिन है कि वह तत्कालीन गुप्त सम्राट नरसिंह गुप्त बालादित्य अथवा भानु गुप्त के अधीन शासन कर रहा था या उसने हूणों की अधिसत्ता स्वीकार कर ली थी। यह भी सम्भावना व्यक्त की गयी है कि वह मालवा के यशोधर्मन का भी समकालीन था। किंतु दोनों के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में कोई सूचना उपलब्ध नहीं है। इसकी बहन हर्ष गुप्ता का विवाह मौखरी नरेश आदित्यवर्मा के साथ हुआ था। इस प्रकार हर्ष गुप्त के शासनकाल में उत्तर गुप्त एवं मौखरी राजकुलों के पारस्परिक सम्बन्ध मित्रतापूर्ण दिखाई देते हैं। वस्तुतः ये दोनों ही राजकुल विकासोन्मुख थे। अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए ये परस्पर सहयोगी बनें और मैत्री सम्बन्ध को सु़दृढ़ करने के लिए वैवाहिक सम्बन्ध का आश्रय लिया।

जीवित गुप्त प्रथम 

हर्ष गुप्त का उत्तराधिकारी उसका पुत्र जीवित गुप्त प्रथम था। इसने लगभग 520 ईस्वी से 540 ईस्वी तक शासन किया। अफसढ़ अभिलेख से उपलब्ध सूचनओं से यह संकेत मिलता है कि यह अपने पिता एवं पितामाह की तुलना में अधिक शक्तिशाली सिद्ध हुआ। इसे अभिलेख में ‘क्षितीशचूड़ामणि’1 उपाधि से विभूषित किया गया है। अफसढ़ अभिलेख में इसके राजनीतिक प्रभावों की चर्चा करते हुए यह कहा गया है कि ‘वह समुद्रतटवर्ती हरित प्रदेश तथा हिमालय के पार्शववर्ती शीत प्रदेश के शत्रुओं के लिए दाहक ज्वर के सदृश था।’1 ऐसा प्रतीत होता है कि गुप्त-साम्राज्य पर हूणों के आक्रमण एवं मालवा शासक यशोवर्धन के दिग्विजय के परिणाम स्वरूप उत्तर भारत में राजनीतिक अव्यवस्था की भयावह स्थिति उतपन्न हो चुकी थी।

गुप्त सम्राटों का प्रताप-सूर्य अस्त हो रहा था और हिमालय के सीमावर्ती क्षेत्रों सहित उत्तरी बंगाल के क्षेत्रों से गुप्त सत्ता का प्रभाव समाप्त हो चला था। असम्भव नहीं है कि जीवित गुप्त प्रथम ने समकालीन गुप्त सम्राट, जो सम्भवतः कुमार गुप्त तृतीय था, के सामन्त के रूप में पूर्वी भारत में विद्रोहों का दमन करने के लिए यह अभियान किया हो। ऐसा प्रतीत होता है कि इस अभियान में समकालीन मौखरी नरेश ईश्वर वर्मा ने भी उसका सहयोग किया। क्योंकि जौनपुर शिलालेख में यह कहा गया है कि ईश्वर वर्मा ने उत्तर की दिशा में हिमालय तक के क्षेत्रों (प्रालेयाद्रि) पर विजय प्राप्त की थी। इन विजयों के परिणाम स्वरूप जीवित गुप्त के शासनकाल में उत्तर गुप्तों के राजनीतिक प्रभाव में वृद्धि हुई। इसलिए अफसढ़ अभिलेख में यह कहा गया है कि ‘उसका पराक्रम पवन पुत्र हनुमान द्वारा समुद्र लंघन के समान अमानुषिक था।

कुमार गुप्तः

जीवित गुप्त प्रथम का उत्तराधिकारी उसका पुत्र कुमार गुप्त हुआ। इसका शासनकाल लगभग 540 ईस्वी से से 560 ईस्वी तक माना गया है। इसके शासन के प्रायः मध्यकाल में (550-51ईस्वी) गुप्त सम्राट विष्णु गुप्त की मृत्यु हुई एवं गुप्त राजवंश का पूर्णतः अंत हो गया। गुप्त राजवंश के पतन का लाभ उठाने की दिशा में उत्तर गुप्त और मौखरी दोनों ही राजवंश सक्रिय हो उठे। परिणामतः इन दोनों राजकुलों का पारस्परिक मैत्री सम्बन्ध समाप्त हो गया। अफसढ़ अभिलेख से दोनों कुलों के बीच शत्रुता एवं संघर्ष की स्पष्ट सूचना मिलती है। इस अभिलेख के अनुसार कुमार गुप्त एवं उसके समकालीन मौखरी नरेश ईशानवर्मा के बीच भीषण संघर्ष हुआ। कदाचित इस संघर्ष का उद्देश्य मगध के क्षेत्र पर, जो साम्राज्य सत्ता का प्रतीक था, अधिकार स्थापित करना था।

उत्तर गुप्त नरेश कुमार गुप्त एवं मौखरी नरेश ईशानवर्मा के बीच संघर्ष की सूचना देने वाला एकमात्र स्रोत अफसढ़ अभिलेख है। इस अभिलेख के अनुसार कुमार गुप्त ने ‘राजाओं में चन्द्रमा के समान शक्तिशाली ईशानवर्मा के सेना रूपी क्षीरसागर का, जो लक्ष्मी की सम्प्राप्ति का साधन था, मन्दराचल पर्वत की भाँति मंथन किया। इस श्लोक में निहित अर्थ को लेकर विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। रायचौधरी का मत है कि इस युद्ध में कुमार गुप्त की विजय हुई तथा ईशानवर्मा पराजित हुआ। क्योंकि मौखरियों द्वारा इस युद्ध में विजय का कोई दावा नहीं किया गया। उल्लेखनीय है कि ईशानवर्मा के 554 ईस्वी के हड़हा अभिलेख में इस युद्ध का कोई वर्णन नहीं है। अतः इस बात की प्रबल सम्भावना है कि यह युद्ध 554 ईस्वी के बाद किसी समय हुआ होगा। अफसढ़ अभिलेख के आगे के श्लोक में यह कहा गया है कि इस युद्ध के बाद कुमार गुप्त ने प्रयाग में अग्निप्रवेश कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली थी।1 निहाररंजन राय और राधाकुमुद मुकर्जी जैसे विद्वानों का मत है कि इस युद्ध में कुमार गुप्त पराजित हुआ था और उसने पराजय जनित ग्लानि के कारण प्रयाग में आत्महत्या की थी।
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मौर्योंत्तर काल

शुंग काल 
शुङ्ग वंश मौर्य वंश के पश्चात का राजवंश हैं।
हर्षचरित व पुराणों से पता चलता है कि सेनापति पुष्यमित्र ने अपने अंतिम मौर्य शासक बृहद्रथ की हत्या कर शुंग वंश की स्थापना की।पुष्यमित्र का साम्राज्य दक्षिण में नर्मदा तक फैला हुआ था तथा विदिशा उसके राज्य का एक प्रमुख नगर था। “मालविकाग्निमित्रम’ के अनुसार पुष्यमित्र वे शासन काल में उसका पुत्र अग्निमित्र विदिशा में गोप्तु (उपराजा) के रुप में शासन का संचालन करता था। अग्निमित्र ने विदर्भ के शासक यज्ञसेन के साथ युद्ध करके विदर्भ के एक बड़े हिस्से पर अधिकार कर लिया।

सन् ४८ ई. पू. में पुष्यमित्र की मृत्यु हो गयी। पौराणिक साक्ष्यों के अनुसार इस वंश में कुल १० शासक हुए —
क. पुष्यमित्र
ख. अग्निमित्र
ग. वसुज्येष्ठ
घ. वसुमित्र
ड़. अंध्रक (ओद्रक)
च. पुलिद्वक
छ. घोष
ज. वज्रमित्र
झ. भागभद्र और
ट. देवभूति।

इन सबने मिलकर ११२ वर्ष तक राज्य किये।अग्निमित्र के उत्तराधिकारियों के संबंध में विशेष रुप से कुछ ज्ञात नहीं है। पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर पाँचवें शासक ओद्रक (अंधक) व नौंवे शासक भागभद्र के विदिशा में राजनीतिक गतिविधियों का साक्ष्य मिलता है। कहा जाता है कि नौवें शासक भागभद्र का संबंध विदिशा स्थित गरुड़ स्तंभ से है, जिसे स्थानीय लोग खानबाबा (खम्भबाबा) के नाम से पुकारते है। यहाँ उत्कीर्ण लेख के अनुसार यूनानी शासक अंतलिकित ने अपने राजदूत हेलियोदोरस को भारतीय नरेश भागभ्रद की राजसभा में राजदूत के रुप में भेजा था। विदिशा में रहते हुए हेलियोदोरस भागवत धर्म का अनुयायी बन गया तथा विष्णु मंदिर के सम्मुख एक गरुड़- स्तंभ का निर्माण करवाया।
अभिलेखित साक्ष्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि पुष्यमित्र शुंग के उत्तराधिकारियों का पूर्वी मालवा (विदिशा) क्षेत्र पर अधिकार अंत तक बना रहा।
पुराणों के अनुसार अंतिम राजा देवभूमि अति कामुक था। उसके अमात्य कण्ववंशीय वसुदेव ने उसकी हत्या कर कण्व वंश की स्थापना की। 

सातवाहन काल 
पुराणों के अनुसार सिमुक ने पूर्वी मालवा (विदिशा) क्षेत्र में शासन करने वाले कण्वों तथा शुंगों की शक्ति को समाप्त कर सातवाहन वंश की स्थापना की है। सातवाहन वंश का सबसे पराक्रमी राजा शातकार्णि प्रथम को माना जाता है। पुराणों में इसकी चर्चा कृष्ण (कान्ह) के पुत्र के रुप में की गई है, जिनका शासनकाल संभवतः ३७ ई. पू. से २७ ई. पू. था। गौतमीपुत्र शातकार्णि ने अपने प्रांतों पर विजय कर अपने वंश की लुप्त गौरव को प्रतिष्ठा दी। साँची के बड़े स्तूप की वेदिका पर उत्कीर्ण एक लेख से शातकर्णि के पूर्वी मालवा क्षेत्र पर अधिकार का पता चलता है।
शातकर्णि की मृत्यु के बाद उनकी रानी नागानिका ने अपने अल्पवयस्क पुत्रों के संरक्षक के रुप में राज्य किया।
पुराणों से प्राप्त वंशावली के अनुसार इस कुल का छठा राजा का नाम भी शातकर्णि था। विद्वानों ने इसे शातकर्णि द्वितीय के नाम से पुकारा है। उज्जयिनी से मिले “रजोसिरि सतस’ नामांकित सिक्के शातकर्णि द्वितीय के द्वारा ही मुद्रित सिक्के माने जाते हैं। इस प्रकार शातकर्णि द्वितीय का अवन्ति पर शासनाधिकार सिद्ध होता है।

गौतमीपुत्र शातकार्णि सातवाहन वंश का सबसे बड़ा व पराक्रमी राजा था। उसके पुत्र वसिष्ठिपुत्र पुलुमावी के नासिक अभिलेख में उसकी सफलताओं का वर्णन मिलता है। इस अभिलेख में उसे पुनः सातवाहन वंश की स्थापना करने वाला, क्षत्रियों के दपं और मान का मर्दन करने वाला तथा क्षहरात वंश का निर्मूलन करने वाला बताया गया है। इनके शासन क्षेत्र की सूची में अनूप (महिष्मती के आसपास का निभाड़), आकर (पूर्वी मालवा) और अवन्ति (पश्चिम मालवा) भी शामिल है।
सातवाहन वंश का अंतिम प्रतापी नरेश यज्ञरी शातकर्णि था, जिसने १६५ ई. से १९३ ई. तक राज्य किया। उज्जयिनी लक्षण मुद्रित सिक्कों से उसके उज्जयिनी पर शासन का प्रमाण मिलता है।
शकों का शासनसाधारणतः विद्वानों का मत है कि उज्जयिनी में शकों का शासन लगातार तब तक चलता रहा, जब तक की चंद्रगुप्त द्वितीय के शासन के समय में मालवा गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित नहीं हो गया। इस काल के मालवा के इतिहास से संबंधित बहुत कम अभिलेखीय प्रमाण उपलब्ध होते हैं। अतः हम मुद्राशास्रीय साक्ष्यों पर ही पूर्णरुपेण निर्भर हैं। शकों की संयुक्त शासन- प्रणाली में यह परंपरा थी कि वरिष्ठ शासक “महाक्षत्रय’ की उपाधि धारण करता था तथा अन्य कनिष्ठ शासक “क्षत्रय’ कहलाते थे। पश्चिमी क्षत्रपों के समय- समय पर मिलते रहे, सिक्कों से ज्ञात होता है कि “महाक्षत्रय- उपाधि’ बीच- बीच में नहीं मिलती है।


पार्थियन नरेशों की सिंधु प्रदेश की विजय के फलस्वरुप पंजाब तथा उत्तर- पश्चिम सीमांत प्रदेश में शक सत्ता का अंत हो गया और शकों की एक शाखा पश्चिमी भारत में अपने राज्य की स्थापना की। इसी शाखा से जुड़े राजवंश हैं —
१. क्षहरात वंश
२. कार्दभक वंश।

क्षहरात वंश का प्रथम ज्ञात क्षत्रप क्षहरात भूभक है। मुद्राओं के अध्ययन से उसके उज्जैन व भिलसा पर अधिकार का प्रमाण मिलता है। क्षहरात वंश का सबसे शक्तिशाली शासक नहपान हुआ। वह सातवाहन नरेश गौतमी पुत्र शातकर्णि का समकालीन था। नासिक अभिलेख से विदित होता है कि गौतमी पुत्र शातकर्णि ने नहपान ने आकर (पूर्वी- मालवा) तथा अवन्ति (पश्चिमी- मालवा) को छीनकर उन पर अधिकार कर लिया।क्षहरात कुल के समूल विनाश के पश्चात पश्चिमी भारत में कदिभक- कुल के शकों का आविर्भाव हुआ। चष्टन इन वंश का प्रथम क्षत्रप था। अंधाऊ अभिलेख से पता चलता है कि चष्टन और उसका पौत्र रुद्रदामन साथ मिलकर शासन करते थे। टालमी के भूगोल (१४० ई.) पता चलता है कि अवन्ति या पश्चिम मालवा की राजधानी पर हिमास्टेनीज का अधिकार था। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि चष्टन ने नहपान द्वारा खोए हुए कुछ प्रदेशों को सातवाहनों से पुनः जीतकर उज्जैन को अपनी राजधानी बनाई।

चष्टन के बाद उसका पौत्र रुद्रदामन प्रथम क्षत्रप बना। रुद्रदामन प्रथम के जूनागढ़ अभिलेख (१५० ई.) से विदित होता है कि उसने अपने पितामह के क्षत्रय के रुप में आकर (पूर्वी मालवा) तथा अवन्ति (पश्चिमी मालवा) को गौतमी पुत्र शातकर्णि व उसके उत्तराधिकारी को पराजित करके जीता था। उपरोक्त प्रमाण बताते हैं कि रुद्रदामन प्रथम के शासनकाल में पूर्वी और पश्चिमी मालवा शक साम्राज्य के अभिन्न अंग थे।
रुद्रदामन प्रथम के बाद भी कदिर्भक वंश के शक नरेशों का मालवा से संबंध बना रहा और वे उज्जयिनी को अपनी राजधानी बनाकर शासन- संचालन करते रहे। भतृदामन का पुत्र विश्वसेन चष्टन वंश का अंतिम क्षत्रप था। भर्तृदामन और विश्वसेन की मुद्राएँ गोंदरमऊ सिरोह तथा साँची से प्राप्त हुई है। इन सिक्कों का अधिक संख्या में मिलना इस बात का संकेत है कि इन्होंने अपने वंश की खोई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त किया।

चष्टन वंश के पतन के पश्चात शासन करने वाले परवर्ती शक- क्षत्रपों के कुछ सिक्के व अभिलेख मालवा- क्षेत्र से प्राप्त हुए हैं, जिनसे उन राजाओं के शासन- काल के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। इस वंश का प्रथम ज्ञात शासक रुद्रसिंह द्वितीय (स्वामी जीवदामन का पुत्र) था, जिसके सिक्के (शक संवत २२७- ३०४ ई.) साँची, गोदरमड (सिरोह) आदि स्थानों से प्राप्त हुए हैं। रुद्रसिंह द्वितीय के उत्तराधिकारी यशोदामन द्वितीय (शक संवत ३१६- ३३२), रुद्रदामन द्वितीय, रुदसेन (तृतीय ३४८- ३७८ ई.), सिंहसेन, रुद्रसेन चतुर्थ, सत्यसिं तथा रुद्रसिंह तृतीय था।

रुद्रसेन तृतीय का शासन- काल करीब ३० वर्षों का था। उसके सिक्के आवरा (मंदसौर), गोंदरमऊ (सिरोह) तथा साँची से प्राप्त होते हैं। सिंहसेन से लेकर वंश के अंतिम शासक रुद्रसिंह तृतीय तक काशासन काल लगभग ३८२ ई. से ३८८ ई. तक रहा। गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) ने व्यक्तिगत रुप से शकों के विरुद्ध पश्चिमी भारत के शक- नरेश रुद्रसिंह तृतीय को परास्त कर पश्चिमी मालवा पर अधिकार कर लिया तथा अपने पुत्र गोविंद गुप्त को उज्जयिनी का शासक नियुक्त किया।

विदिशा- एरण क्षेत्र में शासन करने वाले एक नये शक वंश का पता चलता है, जिसके शासक श्रीधर वर्मन का एक अभिलेख एरण तथा दूसरा साँची के निकट कानखेरा से प्राप्त हुआ है। कानखेरा अभिलेख से मालूम पड़ता है कि श्रीधर वर्मन ने एक सैनिक अधिकारी के रुप में अपने जीवन की शुरुआत की। बाद में वह सामंत शासक बना तथा आमीरों की शक्ति क्षीण होने पर अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। कानखेड़ा व एरण से प्राप्त अभिलेखों के अनुसार उसके शासन काल ३३९ ई. ३६६ ई. के मध्य रही होगी। समुद्रगुप्त ने श्रीधरवर्मन के राज्य पर आक्रमण कर उसे पराजित कर दिया।


कुषाण 
मथुरा के इतिहास में यहाँ की जनता शक-क्षत्रपों के समय सर्वप्रथम विदेशी सम्पर्क में आई परन्तु उनकी अपेक्ष उस पर कुषाण शासन का प्रभाव अधिक चिरस्थाई रुप से पड़ा। इस समय यहाँ के कलाकारों को अपनी जीविक के लिए विदेशीय का ही आश्रय ढूँढ़ना पड़ा होगा। इन्हीं कारणों से कवि के समान कलाकार की छेंनी में भी कुषाण प्रभाव झलकने लगा। नवीन संस्कृति नवीन शासक और नवीन परम्पराओं के साथ नवीन विचारों का प्रार्दुभाव हुआ जिसने एक नवीन कला शैली को जन्म दिया जो ‘मथुरा कला’ ‘कुषाण कला’ इस अर्थ में उन सभी शैलियों का समावेश होगा जो सोवियत तुर्किस्तान से सारनाथ तक फैले हुए विशाल कुषाण साम्राज्य प्रचलित थी। इस अर्थ वल्ख की कला, गांधार की यूनानी बौद्ध कला, सिरकप (तक्षशिला) की कुषाण कला तथा मथुरा की कुषाण कला का बोध होगा।
कुषाण सम्राट कनिष्क, हुविष्क और वासुदेव का शासन काल माथुरी कला का ‘स्वर्णिम काल’ था। इस समय इस कला शैली न पर्याप्त समृद्धि और पूर्णता प्राप्त की। यद्यपि यहाँ की परम्परा का मूल ‘भरहूत’ और ‘साची’ की विशुद्ध भारतीय धारा है यथापि इसका अपना महत्व यह है कि यहाँ प्राचीन पृष्ठभूमि पर नवीन विचारों से प्रेरित कलाकारों की छेनी ने एक ऐसी शैली को जन्म दिया जो आगे चलकर अपनी विशेषताओं के कारण भारतीय कला की एक स्वतंत्र और महत्वपूर्ण शैली बन गई। इस कला ने अंकनीय विषयों का चुनाव पूर्ण सहष्णुता के साथ किया। इसके पुजारियों ने विष्णु, शिव, दुर्गा, कुबेर, सूर्य आदि के साथ-साथ बुद्ध और तीर्थ करों की भी मानव रुप से अर्चना की। इन कलाकृतियों को निम्नांकित वर्गों में बाँटा जा सकता है –

– जैन तीर्थ कर प्रतिमाएँ
– आयागप
– बुद्ध व बोधिसत्व प्रतिमाएँ
– ब्राहम्मण धर्म की मूर्तियाँ
– यक्ष-यक्षिणी, नाग आदि मूर्तियाँ तथा मदिरापान के द्रव्य
– कथाओं से अंकित शिलाप
– वेदिका स्तम्भ, सूचिकाएँ, तोरण, द्वारस्तम्भ, जातियाँ आदि
– कुषाण शासकों की प्रतिमाएँ
कुषाण कला की विशेषताएँ –
– विविध रुपों में मानव का सफल चित्रण।
– मूर्तियों के अंकन में परिष्कार।
– लम्बी कथाओं के अंकन में नवीनताएँ।
– प्राचीन और नवीन अभिप्रायों की मधुर मिलावट।
– गांधार कला का प्रभाव।
– व्यक्ति विशेष की मूर्तियों का निर्माण।

१. विविध रुपों में मानव का सफल चित्रण
कुषाण काल में मनुष्य और पशुओं के सम्मुख चित्रण की पुरानी परम्परा छोड़ दी गई। साथ ही साथ मानव शरीर के चित्रण की क्षमता भी बढ़ गई। विशेषत: रमणी के सौंदर्य को रुप-रुपांतरों में अंकित करने में मथुरा का कलाकार पूर्णत: सफल रहा। स्तन्य की ओर संकेत करने वाली स्नेहमयी देवी, झुँन-झुँना दिखलाकर बच्चों का मनोरंजन करने वाली माता विविध प्रकार के अलंकारों से अपने को मण्डित करने वाली युवतियाँ, धनराशि के समान श्याम केशकलाप को निचोड़ते हुए उनके कारण मोर के मन में उत्सुकता जमाने वाली प्रेमिकाएँ, उन्मुक्त आकाश के नीचे निर्झर स्नान करने वाली मुग्धाएँ, फूलों को चुनने वाली अंगनाए, कलश धारिणी गोपवधू, दीपवाहिका, विदेशी दासी, मधपान से मतवाली वेश्या, दपंण से प्रसाधन करने वाली रमणी आदि अनेकानेक रुपों में नारी को मथुरा के कलाकारों के द्वारा पूर्ण सफलता के साथ दिखलाया गया।
पुरुषों के चित्रण में भी वे पीछे नहीं थे। धन संग्रह के प्रतीक बड़ी तोंद वाले कुबेर, ईरानी वेश में सूर्य, राजकीय वेश में कुषाण दरबारी, विदेशी पहरेदार फीतेदार चप्पल धारण किए सैनिक, भोले-भाले उपासक, विविध प्रकार की पगड़ियाँ बाँधे हुए पुरुष, बहुमूल्य वस्रालंकारों से मण्डित बोधिसत्व आदि छोटे-बड़े वर्ग के पुरुष और देवता बड़ी ही कुशलता से अंकित किए गए हैं।


२. मूर्तियों के अंकन में परिष्कार
कुषाण काल की मूर्तियाँ शुंग काल के सामना चपटी न होकर गहराई के साथ उकेरी गई हैं। प्रारम्भिक अवस्था की तुलना में अब आकृतियों की ऊँचाई बढ़ जाती है। उसी अनुपात में निम्नकोटी की आकृतियों की ऊँचाई में भी बुद्धि होती है। मथुरा की प्रारम्भिक कलाकृतियों की स्थूलता और भोड़ापन कुषाण काल में पहुँचते-पहुँचते है। मांसल और सुडौल शरीर में बदल जाता है वस्रों के पहनावे में भी सुरुचि की मात्रा बढ़ जाती है। अब उत्तरीय चपटे रुप में नहीं पड़ता अपितु मोटी घुमावदार रस्सी के रुप में दिखलाई पड़ता है। प्रारम्भिक कुषाण काल की मूर्तियों में केवल बाँया कन्धा ढका रहता है और कमर के ऊपर वाला वस्र का भाग शरीर से सटा हुआ कुछ पारदर्शक सा रहता है, नीचे वाले भाग की ओर कुछ अनुपातत: कुछ काम ध्यान दिया गया है। जाँघ और पैरों की बनावट में एक प्रकार की कढ़ाई दिखलाई पड़ती है। कुषाण काल के मध्य में यह दोष हट जाता है और बहुधा मूर्तियाँ एक घुटना किंचित मोड़कर खड़ी दिखलाई पड़ती हैं।
इस काल के मूर्ति निर्माण की दूसरी विशेषता मूर्तियों का आगे और पीछे दोनों ओर से गढ़ा जाता है। इस काल की बहुसंख्यक मूर्तियाँ ऐसी ही हैं। सम्मुख भाग के समान कलाकार ने प्रष्ठ भाग की ओर भी खूब ध्यान दिया है। इसकी दो पद्धतियाँ थीं, तो पीछे की ओर पीठ पर लहराते हुए केश कलाप, आभरण, उत्तरीय आदि वस्र आदि दिखलाए जाते थे अथवा पशु-पक्षियों से युक्त वृक्ष अंकित किए जाते थे।

३. लम्बी कथाओं के अंकन में नवीनताएँ 
जातक कथाओं के समान अनेक दृश्यों वाली कथाएँ ‘भूर हूत’ तथा ‘सांची’ में भी अंकित की गई थी, परन्तु वहाँ पद्धति यह थी कि एक ही चौखट के भीतर अगल-बगल या तले ऊपर कई दृश्यों को दिखलाया जाता था, पर अब प्रत्येक दृश्य के लिए अलग-अलग चौखट दिये जाने लगे। उदाहरणार्थ मथुरा से प्राप्त एक द्वारस्तम्भ पर अंकित नंद-सुन्दरी की कथा७ कई चौखटों में इस प्रकार सजाई गई है कि उससे सम्पूर्ण द्वार स्तम्भ सुशोभित हो सके। चौखटें अलग-अलग होने के कारण उनके भीतर बनी मूर्तियों के आकार भी सरलता से ऊँचे बनाए जा सके।

४. प्राचीन और नवीन अभिप्रायों की मिलावट
काल के कलाकारों ने परम्परा से चले आने वाले वृक्ष, लता, और पशु-पक्षियों के अभिप्रायों को अपनाते हुए साथ ही अपनी प्रतिभा से देश काल के अनुरुप नवीन अभिप्रायों का सृजन किया। उसका फल यह हुआ कि मथुरा की कला में प्रकृति और उसके अनेक रुपों का अंकन मिलता है। यहाँ विविध वृक्ष लताएँ, मगर, मछलियाँ आदि जलचर, मोर, हंस, तोते, आदि पक्षी व गिलहरियाँ, बन्दर, हाथी, शरभ, सिंह आदि छोटे-बड़े पशु सभी दिखलाई पड़ते हैं। पुष्पों में यदि केवल कमल और कमल लता को ही लें तो उसके अनेक रुप दृष्टिगोचर होते हैं। ईहामृग या काल्पनिक पशु-पक्षियों जैसे-तोते की चोंच वाला मगर, मानव मुख वाला मेंढ़क आदि का भी यहाँ अभाव नहीं है।

कुषाण कालीन कला में दृष्टिगोचर होने वाले अभिप्रायों को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है।
i. प्राचीन भारतीय पद्धति के अभिप्राय।
ii. नवीन अभिप्राय जिनमें से कुछ पर विदेशी प्रभाव स्पष्ट है।


प्रथम प्रकार के अभिप्राय वे हैं जो विशुद्ध रुप से भारतीय हैं और गांधार कला के सम्पर्क के पूर्व बराबर व्यवछत होते थे, इनमें पशु-पक्षियों के अतिरिक्त दोहरे छत वाल विहार, गवाक्ष, वातायन, वेदिकाएँ, कपि-शीर्ष, कमल, मणि माला, पंच्चवाट्टिका, घण्टावली, हत्थे या पंचाङ्गुलितल, अष्ट मांगलिक चिन्ह यथा पूर्णघट भद्रासन, स्वास्तिक, मीन-युग्म, शराव-सम्पुट, श्रीवत्स, रत्नपात्र, व त्रिरत्न आदि का समावेश होता है।

नवीन अभिप्रायों से तात्पर्य उन अभिप्रायों से है जो गांधार कला के सम्पर्क में आने के बाद मथुरा की कलाकृतियों में भी अपनाए गए इनमें (CORINTHIAN FLOWER) भटकटैया का फूल, प्रभामण्डल, मालाधारी यक्ष, अंगूर की लता, मध्य एशिया और ईरानी पद्धति के ताबीज के समान अलंकार आदि की गणना की जा सकती हैं।

५. गांधार कला का प्रभाव
कुषाणों के शासन काल में उत्तर-पश्चिम भारत में कला की एक नव-शैली विकसित हुई। यह भारतीय और यूनानी कला का एक मिश्रित रुप था। जिस गांधार प्रदेश में इसका बोल-बाला रहा, उसी के आधार पर इसे ‘गांधार कला’ के नाम से कला जगत पहचाना गया है। एक ही शासन की छत्र छाया में पनपने के कारण इन शैलियों का परस्पर सम्पर्क में आना स्वाभाविक था, परन्तु दोनो के मूलभूत सिद्धान्त अलग थे। गांधार कला पर यूनानी कला का गहरा प्रभाव था। वा मानव चित्रण के बहिरंग पक्ष को अधिक महत्व देती थी। इसके विपरीत भारतीय विचारधारा में पली हुई मथुरा कला भाव पक्ष की ओर बढ़ती चली जा रही थी। फल यह हुआ कि गांधार कला से मथुरा के कलाकार कुछ सीमित अंश तक प्रभावित हुए। इनमें उन्होंने न केवल निर्माण सिद्धान्त ही अपनाए, वरन उनकी कुछ कथावस्तुओं को भी मूर्त रुप दैने का प्रयत्न किया। उदाहरणार्थ यूनानी योद्धा ‘हरक्यूलियस’ का ‘नेमियनसिंह’ के साथ जो युद्ध हुआ था, उस दृश्य का चित्र मथुरा कला में प्राप्त होता है।


तथापि यह भी सत्य है कि मथुरा की सम्पूर्ण कलाकृतियों में यूनानी प्रभाव दिखलाने वाली प्रतिमाओं की संख्या बड़ी ही अल्प है। इस प्रभाव को सूचित करने वाले अंश निम्नांकित हैं –
i. बुद्ध और बोधिसत्वों की कुछ मूर्तियाँ जो अधोलिखित विशेषताओं से युक्त हैं –
(a) अर्थवर्तुलाकार धारियों वाला वस्र, जिससे बहुधा दोनों कंधे और कभी-कभी पूरा शरीर ढका रहता है (चित्र ४८)।
(b) मस्तक पर लहरदार बाल।
(c) नेत्र और होंठ भरे हुए तथा धारदार, विशेषतया ऊपर की पलकें भारी रहती हैं।
ii. बुद्ध जीवन को अंकित करने वाले कतिपय दृश्य, जैसे मथुरा संग्रहालय की मूर्ति संख्या ००.एच.१, ००.एच.७, ००.एन.२, ००.एच.११.
iii. कला के कुछ नवीन अभिप्राय, जैसे मालाधारी यक्ष, गरुड़, द्राक्षलता आदि।
iv. मदिरापन के दृश्य
गांधार कला की एक सुन्दर नारी की मूर्ति जो ‘हरिति’ डॉ. वी. एस. अग्रवाल उसे कम्बोजीका की प्रतिमा मानते हैं जिसका नाम सिंहशीर्ष पर अंकित लेख में मिलता है। अत: सिंहशीर्ष और यह गांधार प्रतिमा मथुरा के एक ही स्थान से अर्थात् सप्तर्षि टीले से मिले थे। ‘कम्बोजिका’ आदि नामों से पहचानी जाती है (चित्र ४३-४४) मथुरा क्षेत्र से ही प्राप्त हुई है। उसका उल्लेख इस सन्दर्भ में आवश्यक है। संभव है कि गांधार कला की यह कलाकृति किसी प्रेमी ने यहाँ मंगवाकर स्थापित की है।

६. व्यक्ति विशेष की मूर्तियों का निर्माण

भारतीय कला को मथुरा की यह विशेष देन है। भारतीय कला के इतिहास में यहीं पर सर्वप्रथम हमें शासकों की लेखों से अभिलिखित मानवीय आकारों में निर्मित प्रतिमाएँ दिशलाई पड़ती हैं। कुषाण सम्राट ‘वेमकटफिश’, कनिष्क एवं पूर्ववर्ती शासक चन्दन की मूर्तियाँ ‘माँट’ नामक स्थान से पहले ही मिल चुकी हैं। एक और मूर्ति जो संभवत: कुषाण सम्राट ‘हुविष्क’ की हो सकती है, इस समय ‘गोकर्णेश्वर’ के नाम से मथुरा में पूजी जाती है। ऐसा लगता है कि कुषाण राजाओं को अपने और पूर्वजों के प्रतिमा मन्दिर या ‘देवकुल’ बनवाने की विशेष रुचि थी। इस प्रकार का एक देवकुल मन्दिर या ‘देवकुल’ बनवाने की विशेष रुचि थी। इस प्रकार का एक देवकुल तो ‘भाँट’ में था। इन स्थानों से उपरोक्त लेखांकित मूर्तियों के अतिरिक्त अन्य राजपुरुषों की मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई है, किन्तु वे लेख रहित है।इस संदर्भ में यह भी अंकित करना समीचीन होगा, कि कुषाण सम्राटों का एक और ‘देवकुल’ जिसे वहाँ ‘बागोलांगो’ कहा गया है, अफगानिस्तान के ‘सुर्खकोतल’ नामक स्थान पर था। यहाँ के पुरातात्विक उत्खन्न के पश्चात इस ‘देवकुल’ की सारी रुपरेखा स्पष्ट हुई है।
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बौद्ध धर्म

जीवन परिचय -गौतम बुद्ध
नेपाल के तराई क्षेत्र में कपिलवस्तु और देवदह के बीच नौतनवा स्टेशन से 8 मील दूर पश्चिम में रुक्मिनदेई नामक स्थान है। वहाँ एक लुम्बिनी नाम का वन था। गौतम बुद्ध का जन्म ईसा से 563 साल पहले जब कपिलवस्तु की महारानी महामाया देवी अपने नैहर देवदह जा रही थीं, तो रास्ते में लुम्बिनी वन में हुआ। तब इनका नाम सिद्धार्थ रखा गया। इनके पिता का नाम शुद्धोदन था। जन्म के सात दिन बाद ही माँ का देहांत हो गया। सिद्धार्थ की मौसी गौतमी ने उनका लालन-पालन किया।




सिद्धार्थ ने गुरु विश्वामित्र के पास वेद और उपनिषद्‌ तो पढ़े ही, राजकाज और युद्ध-विद्या की भी शिक्षा ली। कुश्ती, घुड़दौड़, तीर-कमान, रथ हाँकने में कोई उसकी बराबरी नहीं कर पाता। बचपन से ही सिद्धार्थ के मन में करुणा भरी थी। उससे किसी भी प्राणी का दुःख नहीं देखा जाता था। यह बात इन उदाहरणों से स्पष्ट भी होती है। घुड़दौड़ में जब घोड़े दौड़ते और उनके मुँह से झाग निकलने लगता तो सिद्धार्थ उन्हें थका जानकर वहीं रोक देता और जीती हुई बाजी हार जाता। खेल में भी सिद्धार्थ को खुद हार जाना पसंद था क्योंकि किसी को हराना और किसी का दुःखी होना उससे नहीं देखा जाता था।

एक बार की बात है सिद्धार्थ को जंगल में किसी शिकारी द्वारा तीर से घायल किया हंस मिला। उसने उसे उठाकर तीर निकाला, सहलाया और पानी पिलाया। उसी समय सिद्धार्थ का चचेरा भाई देवदत्त वहाँ आया और कहने लगा कि यह शिकार मेरा है, मुझे दे दो। सिद्धार्थ ने हंस देने से मना कर दिया और कहा कि तुम तो इस हंस को मार रहे थे। मैंने इसे बचाया है। अब तुम्हीं बताओ कि इस पर मारने वाले का हक होना चाहिए कि बचाने वाले का?

देवदत्त ने सिद्धार्थ के पिता राजा शुद्धोदन से इस बात की शिकायत की। शुद्धोदन ने सिद्धार्थ से कहा कि यह हंस तुम देवदत्त को क्यों नहीं दे देते? आखिर तीर तो उसी ने चलाया था? इस पर सिद्धार्थ ने कहा- पिताजी! यह तो बताइए कि आकाश में उड़ने वाले इस बेकसूर हंस पर तीर चलाने का ही उसे क्या अधिकार था? हंस ने देवदत्त का क्या बिगाड़ा था? फिर उसने इस पर तीर क्यों चलाया? क्यों उसने इसे घायल किया? मुझसे इस प्राणी का दुःख देखा नहीं गया। इसलिए मैंने तीर निकालकर इसकी सेवा की। इसके प्राण बचाए। हक तो इस पर मेरा ही होना चाहिए।

राजा शुद्धोदन को सिद्धार्थ की बात जँच गई। उन्होंने कहा कि ठीक है तुम्हारा कहना। मारने वाले से बचाने वाला ही बड़ा है। इस पर तुम्हारा ही हक है। शाक्य वंश में जन्मे सिद्धार्थ का सोलह वर्ष की उम्र में दंडपाणि शाक्य की कन्या यशोधरा के साथ हुआ। राजा शुद्धोदन ने सिद्धार्थ के लिए भोग-विलास का भरपूर प्रबंध कर दिया। तीन ऋतुओं के लायक तीन सुंदर महल बनवा दिए। वहाँ पर नाच-गान और मनोरंजन की सारी सामग्री जुटा दी गई। दास-दासी उसकी सेवा में रख दिए गए। पर ये सब चीजें सिद्धार्थ को संसार में बाँधकर नहीं रख सकीं। विषयों में उसका मन फँसा नहीं रह सका।

सांसारिक दुःख देखकर विचलन : वसंत ऋतु में एक दिन सिद्धार्थ बगीचे की सैर पर निकले। उन्हें सड़क पर एक बूढ़ा आदमी दिखाई दिया। उसके दाँत टूट गए थे, बाल पक गए थे, शरीर टेढ़ा हो गया था। हाथ में लाठी पकड़े धीरे-धीरे काँपता हुआ वह सड़क पर चल रहा था। कुमार (सिद्धार्थ) ने अपने सारथी सौम्य से पूछा- ‘यह कौन पुरुष है? इसके बाल भी औरों के समान नहीं हैं!’

सौम्य ने कहा- ‘कुमार! यह भी एक दिन सुंदर नौजवान था। इसके भी बाल काले थे। इसका भी शरीर स्वस्थ था। पर अब जरा ने, बुढ़ापे ने इसे दबा रखा है।’ कुमार बोला- ‘सौम्य! यह जरा क्या सभी को दबाती है या केवल इसी को उसने दबाया है?’ सौम्य ने कहा- ‘कुमार, जरा सभी को दबाती है। एक दिन सभी की जवानी चली जाती है!’ ‘सौम्य, क्या किसी दिन मेरा भी यही हाल होगा?’ ‘अवश्य, कुमार!’ कुमार कहने लगा- ‘धिक्कार है उस जन्म पर, जिसने मनुष्य का ऐसा रूप बना दिया है। धिक्कार है यहाँ जन्म लेने वाले को!’

कुमार का मन खिन्न हो गया। वह जल्दी ही लौट पड़ा। राजा को पता लगा, तो उन्होंने कुमार के लिए और अधिक मनोरंजन के सामान जुटा दिए। महल के चारों ओर पहरा बैठा दिया कि फिर कभी ऐसा कोई खराब दृश्य कुमार न देख पाएँ। दूसरी बार कुमार जब बगीचे की सैर को निकला, तो उसकी आँखों के आगे एक रोगी आ गया। उसकी साँस तेजी से चल रही थी। कंधे ढीले पड़ गए थे। बाँहें सूख गई थीं। पेट फूल गया था। चेहरा पीला पड़ गया था। दूसरे के सहारे वह बड़ी मुश्किल से चल पा रहा था। फिर कुमार ने सारथी से पूछा- ‘यह कौन है सौम्य?’

‘यह बीमार है कुमार! इसे ज्वर आता है।’ ‘यह बीमारी कैसी होती है, सौम्य?’ ‘बीमारी होती है धातु के प्रकोप से।’ ‘क्या मेरा शरीर भी ऐसा ही होगा सौम्य?’ ‘क्यों नहीं कुमार? शरीरं व्याधिमंदिरम्‌। शरीर है, तो रोग होगा ही!’ कुमार को फिर एक धक्का लगा। वह बोला- ‘यदि स्वास्थ्य सपना है, तो कौन भोग कर सकता है शरीर के सुख और आनंद का? लौटा ले चलो रथ सौम्य।’ कुमार फिर दुःखी होकर महल को लौट आया। पिता ने पहरा और कड़ा कर दिया।

फिर एक दिन कुमार बगीचे की सैर को निकला। अबकी बार एक अर्थी उसकी आँखों के सामने से गुजरी। चार आदमी उसे उठाकर लिए जा रहे थे। पीछे-पीछे बहुत से लोग थे। कोई रो रहा था, कोई छाती पीट रहा था, कोई अपने बाल नोच रहा था।

यह सब देखकर कुमार ने सौम्य से पूछा- ‘यह सजा-सजाया, बँधा-बँधाया, कौन आदमी लेटा जा रहा है बाँस के इस खटोले पर?’

सौम्य बोला- ‘यह आदमी लेटा नहीं है कुमार। यह मर गया है। यह मृत है, मुर्दा है। अपने सगे-संबंधियों से यह दूर चला गया। वहाँ से अब कभी नहीं लौटेगा। इसमें अब जान नहीं रह गई। घरवाले नहीं चाहते, फिर भी वे इसे सदा के लिए छोड़ने जा रहे हैं कुमार।’ ‘क्या किसी दिन मेरा भी यही हाल होगा, सौम्य?’ ‘हाँ, कुमार! जो पैदा होता है, वह एक दिन मरता ही है।’ ‘धिक्कार है जवानी को, जो जीवन को सोख लेती है। धिक्कार है स्वास्थ्य को, जो शरीर को नष्ट कर देता है। धिक्कार है जीवन को, जो इतनी जल्दी अपना अध्याय पूरा कर देता है। क्या बुढ़ापा, बीमारी और मौत सदा इसी तरह होती रहेगी सौम्य?’

‘हाँ कुमार!’ ‘कुमार को गहरा धक्का लगा। वह उदास होकर महल को लौट पड़ा।’ राजा ने कुमार की विरक्ति का हाल सुनकर उसके चारों ओर बहुत सी सुंदरियाँ तैनात कर दीं। वे कुमार का मन लुभाने की तरह-तरह से कोशिश करने लगीं, पर कुमार पर कोई असर नहीं हुआ। अपने साथी उदायी से उसने कहा- ‘स्त्रियों का यह रूप कभी टिकने वाला है क्या? क्या रखा है इसमें?’ चौथी बार कुमार बगीचे की सैर को निकला, तो उसे एक संन्यासी दिखाई पड़ा। उसने फिर पूछा- ‘कौन है यह, सौम्य?’ ‘यह संन्यासी है कुमार!’

‘यह शांत है, गंभीर है। इसका मस्तक मुंडा हुआ है। अपने हाथों में भिक्षा-पात्र लिए है। कपड़े इसके रंगे हुए हैं। क्या करता है यह सौम्य?’

‘कुमार इसने संसार का त्याग कर दिया है। तृष्णा का त्याग कर दिया है। कामनाओं का त्याग कर दिया है। द्वेष का त्याग कर दिया है। यह भीख माँगकर खाता है। संसार से इसे कुछ लेना-देना नहीं।’

कुमार को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसका चेहरा खिल उठा। बगीचे में पहुँचा, तो हरकारे ने आकर कहा- ‘भगवन पुत्ररत्न उत्पन्न हुआ है।’

‘राहुल पैदा हुआ!’ -कुमार के मुख से निकला। उसने सोचा कि एक बंधन और बढ़ा। पिता ने सुना तो पोते का नाम ही ‘राहुल’ रख दिया!

बुद्ध की तपस्या

सुंदर पत्नी यशोधरा, दुधमुँहे राहुल और कपिलवस्तु जैसे राज्य का मोह छोड़कर सिद्धार्थ तपस्या के लिए चल पड़ा। वह राजगृह पहुँचा। वहाँ उसने भिक्षा माँगी। सिद्धार्थ घूमते-घूमते आलार कालाम और उद्दक रामपुत्र के पास पहुँचा। उनसे उसने योग-साधना सीखी। समाधि लगाना सीखा। पर उससे उसे संतोष नहीं हुआ। वह उरुवेला पहुँचा और वहाँ पर तरह-तरह से तपस्या करने लगा।

सिद्धार्थ ने पहले तो केवल तिल-चावल खाकर तपस्या शुरू की, बाद में कोई भी आहार लेना बंद कर दिया। शरीर सूखकर काँटा हो गया। छः साल बीत गए तपस्या करते हुए। सिद्धार्थ की तपस्या सफल नहीं हुई।

शांति हेतु बुद्ध का मध्यम मार्ग : एक दिन कुछ स्त्रियाँ किसी नगर से लौटती हुई वहाँ से निकलीं, जहाँ सिद्धार्थ तपस्या कर रहा था। उनका एक गीत सिद्धार्थ के कान में पड़ा- ‘वीणा के तारों को ढीला मत छोड़ दो। ढीला छोड़ देने से उनका सुरीला स्वर नहीं निकलेगा। पर तारों को इतना कसो भी मत कि वे टूट जाएँ।’ बात सिद्धार्थ को जँच गई। वह मान गया कि नियमित आहार-विहार से ही योग सिद्ध होता है। अति किसी बात की अच्छी नहीं। किसी भी प्राप्ति के लिए मध्यम मार्ग ही ठीक होता है।

सुजाता की खीर और बुद्ध को बोध-प्राप्ति : वैशाखी पूर्णिमा की बात है। सुजाता नाम की स्त्री को पुत्र हुआ। उसने बेटे के लिए एक वटवृक्ष की मनौती मानी थी। वह मनौती पूरी करने के लिए सोने के थाल में गाय के दूध की खीर भरकर पहुँची। सिद्धार्थ वहाँ बैठा ध्यान कर रहा था। उसे लगा कि वृक्षदेवता ही मानो पूजा लेने के लिए शरीर धरकर बैठे हैं। सुजाता ने बड़े आदर से सिद्धार्थ को खीर भेंट की और कहा- ‘जैसे मेरी मनोकामना पूरी हुई, उसी तरह आपकी भी हो।’



उसी रात को ध्यान लगाने पर सिद्धार्थ की साधना सफल हुई। उसे सच्चा बोध हुआ। तभी से वे बुद्ध कहलाए। जिस वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ को बोध प्राप्त हुआ, उसका नाम है बोधिवृक्ष। जिस स्थान की यह घटना है, वह है बोधगया। ईसा के 528 साल पहले की घटना है, जब सिद्धार्थ 35 साल का युवक था। बुद्ध भगवान 4 सप्ताह तक वहीं बोधिवृक्ष के नीचे रहे। वे धर्म के स्वरूप का चिंतन करते रहे। इसके बाद वे धर्म का उपदेश करने निकल पड़े।

बुद्ध का धर्म-चक्र-प्रवर्तन : जब सिद्धार्थ को सच्चे बोध की प्राप्ति हुई उसी वर्ष आषाढ़ की पूर्णिमा को भगवान बुद्ध काशी के पास मृगदाव (वर्तमान में सारनाथ) पहुँचे। वहीं पर उन्होंने सबसे पहला धर्मोपदेश दिया। भगवान बुद्ध ने मध्यम मार्ग अपनाने के लिए लोगों से कहा। दुःख, उसके कारण और निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग सुझाया। अहिंसा पर बड़ा जोर दिया। यज्ञ और पशु-बलि की निंदा की।

80 वर्ष की उम्र तक भगवान बुद्ध ने अपने धर्म का सीधी सरल लोकभाषा में पाली में प्रचार किया। उनकी सच्ची सीधी बातें जनमानस को स्पर्श करती थीं। लोग आकर उनसे दीक्षा लेने लगे।

बौद्ध धर्म सबके लिए खुला था। उसमें हर आदमी का स्वागत था। ब्राह्मण हो या चांडाल, पापी हो या पुण्यात्मा, गृहस्थ हो या ब्रह्मचारी सबके लिए उनका दरवाजा खुला था। जात-पाँत, ऊँच-नीच का कोई भेद-भाव नहीं था उनके यहाँ।

बौद्ध संघ की स्थापना : बुद्ध के धर्म प्रचार से भिक्षुओं की संख्या बढ़ने लगी। बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी उनके शिष्य बनने लगे। शुद्धोदन और राहुल ने भी बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। जब भिक्षुओं की संख्या बढ़ने लगी तो बौद्ध संघ की स्थापना की गई। बाद में लोगों के आग्रह पर बुद्ध ने स्त्रियों को भी संघ में ले लेने के लिए अनुमति दे दी, यद्यपि इसे उन्होंने विशेष अच्छा नहीं माना।

बौद्ध धर्म का विदेशों में प्रचार : भगवान बुद्ध ने ‘बहुजन हिताय’ लोककल्याण के लिए अपने धर्म का देश-विदेश में प्रचार करने के लिए भिक्षुओं को इधर-उधर भेजा। अशोक आदि सम्राटों ने भी विदेशों में बौद्ध धर्म के प्रचार में अपनी अहम्‌ भूमिका निभाई। आज भी बौद्ध धर्म का भारत से अधिक विदेशों में प्रचार है। चीन, जापान, कोरिया, मंगोलिया, बर्मा, थाईलैंड, हिंद चीन, श्रीलंका आदि में बौद्ध धर्म आज भी जीवित धर्म है और विश्व में 50 करोड़ से अधिक लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं।

बुद्ध का निर्वाण : भगवान बुद्ध ने सत्य और अहिंसा, प्रेम और करुणा, सेवा और त्याग से परिपूर्ण जीवन बताया। वैशाखी पूर्णिमा को उनका जन्म हुआ था, उसी दिन उन्हें बुद्धत्व प्राप्त हुआ और उसी दिन निर्वाण। ईसा से 483 साल पहले भगवान बुद्ध ने महापरिनिर्वाण प्राप्त किया।

भगवान बुद्ध का आदर्श जीवन युग-युग तक लोगों को सत्य, प्रेम और करुणा की प्रेरणा देता रहेगा। काश, हम उनके जीवन से, उनके उपदेश से कुछ सीख पाएँ!

बुद्ध धर्म के प्रचारक 

आनन्द : ये बुद्ध और देवदत्त के भाई थे और बुद्ध के दस सर्वश्रेष्ठ शिष्यों में से एक हैं। ये लगातार बीस वर्षों तक बुद्ध की संगत में रहे। इन्हें गुरु का सर्वप्रिय शिष्य माना जाता था। आनंद को बुद्ध के निर्वाण के पश्चात प्रबोधन प्राप्त हुआ। वे अपनी स्मरण शक्ति के लिए प्रसिद्ध थे।

महाकश्यप : महाकश्यप मगध के ब्राह्मण थे, जो तथागत के नजदीकी शिष्य बन गए थे। इन्होंने प्रथम बौद्ध अधिवेशन की अध्यक्षता की थी।

रानी खेमा : रानी खेमा सिद्ध धर्मसंघिनी थीं। ये बीमबिसारा की रानी थीं और अति सुंदर थीं। आगे चलकर खेमा बौद्ध धर्म की अच्छी शिक्षिका बनीं।

महाप्रजापति : महाप्रजापति बुद्ध की माता महामाया की बहन थीं। इन दोनों ने राजा शुद्धोदन से शादी की थी। गौतम बुद्ध के जन्म के सात वर्ष पश्चात महामाया की मृत्यु हो गई। तत्पश्चात महा- प्रजापति ने उनका अपने पुत्र जैसे पालन-पोषण किया। राजा शुद्धोदन की मृत्यु के बाद बौद्ध मठमें पहली महिला सदस्य के रूप में महाप्रजापिता को स्थान मिला था।

मिलिंद : मिलिंदा यूनानी राजा थे। ईसा की दूसरी सदी में इनका अफगानिस्तान और उत्तरी भारत पर राज था। बौद्ध भिक्षु नागसेना ने इन्हें बौद्ध धर्म की दीक्षा दी और इन्होंने बौद्ध धर्म को अपना लिया।

सम्राट अशोक : सम्राट अशोक बौद्ध धर्म के अनुयायी और अखंड भारत के पहले सम्राट थे। इन्होंने ईसा पूर्व 207 ईस्वी में मौर्य वंश की शुरुआत की। अशोक ने कई वर्षों की लड़ाई के बाद बौद्ध धर्म अपनाया था। इसके बाद उन्होंने युद्ध का बहिष्कार किया और शिकार करने पर पाबंदी लगाई। बौद्ध धर्म का तीसरा अधिवेशन अशोक के राज्यकाल के 17वें साल में संपन्न हुआ। सम्राट अशोक ने अपने पुत्र महिंद और पुत्री संघमित्रा को धर्मप्रचार के लिए श्रीलंका भेजा। इनके द्वारा श्रीलंका के राजा देवनामपिया तीस्सा ने बौद्ध धर्म अपनाया और वहाँ ‘महाविहार’ नामक बौद्ध मठ की स्थापना की। यह देश आधुनिक युग में भी थेरावदा बौद्ध धर्म का गढ़ है।

बौद्ध-दीक्षा का मंत्र

बुद्धं सरणं गच्छामि : मैं बुद्ध की शरण लेता हूँ।
धम्मं सरणं गच्छामि : मैं धर्म की शरण लेता हूँ।
संघं सरणं गच्छामि : मैं संघ की शरण लेता हूँ।

बौद्ध धर्म क्या है?

यो च बुद्धं च धम्मं च संघं च सरणं गतो।
चत्तारि अरिय सच्चानि सम्मप्पञ्ञाय पस्सति॥
दुक्खं दुक्खसमुप्पादं दुक्खस्स च अतिक्कमं।
अरियं चट्ठगिंकं मग्गं दुक्खूपसमगामिनं॥
एतं खो सरणं खेमं एतं सरणमुत्तमं।
एतं सरणमागम्म सव्वदुक्खा पमुच्चति॥


बौद्ध धर्म कहता है कि जो आदमी बुद्ध, धर्म और संघ की शरण में आता है, वह सम्यक्‌ ज्ञान से चार आर्य सत्यों को जान लेता है। ये आर्य सत्य हैं- दुःख, दुःख का हेतु, दुःख से मुक्ति और दुःख से मुक्ति की ओर ले जाने वाला अष्टांगिक मार्ग। इसी मार्ग की शरण लेने से कल्याण होकर और मनुष्य सभी दुःखों से छुटकारा पा जाता है।

बौद्ध धर्म के आर्यसत्य-चतुष्टय 

बौद्ध धर्म के अनुसार आर्य सत्य चार हैं :

(1) दुःख
(2) दुःख-समुदाय
(3) दुःख-निरोध
(4) दुःखनिरोध-गामिनी


पहला आर्य सत्य दुःख है। जन्म दुःख है, जरा दुःख है, व्याधि दुःख है, मृत्यु दुःख है, अप्रिय का मिलना दुःख है, प्रिय का बिछुड़ना दुःख है, इच्छित वस्तु का न मिलना दुःख है। यह दुःख नामक आर्य सत्य परिज्ञेय है। संक्षेप में रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान, यह पंचोपादान स्कंध (समुदाय) ही दुःख हैं।

दुःख समुदय नाम का दूसरा आर्य सत्य तृष्णा है, जो पुनुर्मवादि दुःख का मूल कारण है। यह तृष्णा राग के साथ उत्पन्न हुई है। सांसारिक उपभोगों की तृष्णा, स्वर्गलोक में जाने की तृष्णा और आत्महत्या करके संसार से लुप्त हो जाने की तृष्णा, इन तीन तृष्णाओं से मनुष्य अनेक तरह का पापाचरण करता है और दुःख भोगता है। यह दुःख समुदाय का आर्य सत्य त्याज्य है।

तीसरा आर्य सत्य दुःखनिरोध है। यह प्रतिसर्गमुक्त और अनालय है। तृष्णा का निरोध करने से निर्वाण की प्राप्ति होती है, देहदंड या कामोपभोग से मोक्षलाभ होने का नहीं। यह दुःखनिरोध नाम का आर्य सत्य साक्षात्करणीय कर्तव्य है।

चौथा आर्य सत्य दुःख निरोधगामिनी प्रतिपद् है। यह दुःख निरोधगामिनी प्रतिपद् नामक आर्य सत्य भावना करने योग्य है। इसी आर्य सत्य को अष्टांगिक मार्ग कहते हैं। वे अष्टांग ये हैं :-
1. सम्यक्‌ दृष्टि,
2. सम्यक्‌ संकल्प, 
3. सम्यक्‌ वचन, 
4. सम्यक्‌ कर्मांत, 
5. सम्यक्‌ आजीव, 
6. सम्यक्‌ व्यायाम, 
7. सम्यक्‌ स्मृति, 
8. सम्यक्‌ समाधि।

दुःख का निरोध इसी अष्टांगिक मार्ग पर चलने से होता है। इस ‘आर्यसत्य’ से मेरे अंतर में चक्षु, ज्ञान, प्रज्ञा, विद्या और आलोक की उत्पत्ति हुई। जबसे मुझे इन चारों आर्य सत्यों का यथार्थ सुविशुद्ध ज्ञानदर्शन हुआ मैंने देवलोक में, पमारलोक में, श्रवण जगत और ब्राह्मणीय प्रजा में, देवों और मनुष्यों में यह प्रकट किया कि मुझे अनुत्तर सम्यक्‌ सम्बोधि प्राप्त हुई और मैं अभिसंबुद्ध हुआ, मेरा चित्त निर्विकार और विमुक्त हो गया और अब मेरा अंतिम जन्म है।

परिव्राजक को इन दो अंतों (अतिसीमा) का सेवन नहीं करना चाहिए। वे दोनों अंत कौन हैं? पहला अंत है काम-वासनाओं में काम-सुख के लिए लिप्त होना। यह अंत अत्यंतहीन, ग्राम्य, निकृष्टजनों के योग्य, अनार्य्य और अनर्थकारी है। दूसरा अंत है शरीर को दंड देकर दुःख उठाना। यह भी अनार्यसेवित और अनर्थयुक्त है। इन दोनों अंतों को त्याग कर मध्यमा प्रतिपदा का मार्ग (अष्टांगिक मार्ग) ग्रहण करना चाहिए। यह मध्यमा प्रतिपदा चक्षुदायिनी और ज्ञानप्रदायिनी है। इससे उपशम, अभिज्ञान, संबोधन और निर्वाण प्राप्त होता है।

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प्राचीन भारत की जटिल सामाजिक प्रक्रिया

लगभग 600 ई-पू- से 600 ईसवी तक के मध्य आर्थिक और राजनीतिक जीवन में अनेक परिवर्तन हुए। इनमें से कुछ परिवर्तनों ने समकालीन समाज पर अपना प्रभाव छोड़ा। उदाहरणत: वन क्षेत्रों में कृषि का विस्तार हुआ जिससे वहा रहने वाले लोगों की जीवनशैली में परिवर्तन हुआ शिल्प विशेषज्ञों के एक विशिष्ट सामाजिक समूह का उदय हुआ तथा संपत्ति के असमान वितरण ने सामाजिक विषमताओं को अधिक प्रखर बनाया। इतिहासकार इन सब प्रक्रियाओं को समझने के लिए प्राय: साहित्यिक परंपराओं का उपयोग करते हैं। कुछ ग्रंथ सामाजिक व्यवहार के मानदंड तय करते थे। अन्य ग्रंथ समाज का चित्रण करते थे और कभी-कभी समाज में मौजूद विभिन्न रिवाजों पर अपनी टिप्पणी भी प्रस्तुत करते थे। अभिलेखों से हमें समाज के कुछ ऐतिहासिक अभिनायकों की झलक मिलती है। हम देखेंगे कि प्रत्येक ग्रंथ ;और अभिलेख किसी समुदाय विशेष के दृष्टिकोण से लिखा जाता था। अत: यह याद रखना जरूरी हो जाता है कि ये ग्रंथ किसने लिखे, क्या लिखा गया और किनके लिए इनकी रचना हुई। इस बात पर भी ध्यान देना जरूरी है कि इन ग्रंथों की रचना में किस भाषा का प्रयोग हुआ तथा इनका प्रचार-प्रसार किस तरह हुआ। यदि हम इन ग्रंथों का प्रयोग सावधानी से करें तो समाज में प्रचलित आचार-व्यवहार और रिवाजों का इतिहास लिखा जा सकता है।

1 महाभारत का समालोचनात्मक सस्कंरण

1919 में प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान वी-एस- सुकथांकर के नेतृत्व में एक अत्यंत महत्वाकांक्षी परियोजना की शुरुआत हुई। अनेक विद्वानों ने मिलकर महाभारत का समालोचनात्मक संस्करण तैयार करने का जिम्मा उठाया। इससे जुड़े क्या-क्या कार्य थे? आरंभ में देश के विभिन्न भागों से विभिन्न लिपियों में लिखी गई महाभारत की संस्कृत पांडुलिपियों को एकत्रित किया गया। परियोजना पर काम करने वाले विद्वानों ने सभी पांडुलिपियों में पाए जाने वाले श्लोकों की तुलना करने का एक तरीका ढूढ़ निकाला। अंतत: उन्होंने उन श्लोकों का चयन किया जो लगभग सभी पांडुलिपियों में पाए गए थे और उनका प्रकाशन 13000 पृष्ठों में फैले अनेक ग्रंथ खंडों में किया। इस परियोजना को पूरा करने में सैंतालीस वर्ष लगे। इस पूरी प्रक्रिया में दो बातें विशेष रूप से उभर कर आइ : पहली, संस्कृत के कई पाठों के अनेक अंशों में समानता थी। यह इस बात से ही स्पष्ट होता है कि समूचे उपमहाद्वीप में उत्तिर में कश्मीर और नेपाल से लेकर दक्षिण में केरल और तमिलनाडु तक सभी पांडुलिपियों में यह समानता देखने में आई। दूसरी बात जो स्पष्ट हुई, वह यह थी कि कुछ शताब्दियों के दौरान हुए महाभारत के प्रेषण में अनेक क्षेत्रीय प्रभेद भी उभर कर सामने आए।

इन प्रभेदों का संकलन मुख्य पाठ की पादटिप्पणियों और परिशिष्टों के रूप में किया गया। 13000 पृष्ठों में से आधे से भी अधिक इन प्रभेदों का ब्योरा देते हैं। एक तरह से देखा जाए तो ये प्रभेद उन गूढ़ प्रक्रियाओं के द्योतक हैं जिन्होंने प्रभावशाली परंपराओं और लचीले स्थानीय विचार और आचरण के बीच संवाद कायम करके सामाजिक इतिहासों को रूप दिया था। यह संवाद द्वंद्व और मतैक्य दोनों को ही चित्रित करते हैं। इन सभी प्रक्रियाओं के बारे में हमारी समझ मुख्यत: उन ग्रंथों पर आधारित है जो संस्कृत में ब्राह्मणों द्वारा उन्हीं के लिए लिखे गए। उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में इतिहासकारों ने पहली बार सामाजिक इतिहास के मुद्दों का अनुशीलन करते समय इन ग्रंथों को सतही तौर पर समझा। उनका विश्वास था कि इन ग्रंथों में जो कुछ भी लिखा गया है वास्तव में उसी तरह से उसे व्यवहार में लाया जाता होगा। कालांतर में विद्वानों ने पालि, प्राकृत और तमिल ग्रंथों के माध्यम से अन्य परंपराओं का अध्ययन किया। इन अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ कि आदर्शमूलक संस्कृत ग्रंथ आमतौर से आधकारिक माने जाते थे, किन्तु इन आदशो को प्रश्नवाचक दृष्टि से भी देखा जाता था और यदा-कदा इनकी अवहेलना भी की जाती थी। जब हम इतिहासकारों द्वारा सामाजिक इतिहासों के पुनर्निर्माण की व्याख्या करते हैं तब हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा।


2 अनेक नियम और व्यवहार की विभिन्नता

2.1. परिवारों के बारे में जानकारी


हम बहुधा पारिवारिक जीवन को सहज ही स्वीकार कर लेते हैं। किन्तु आपने देखा होगा कि सभी परिवार एक जैसे नहीं होते : पारिवारिक जनों की गिनती, एक दूसरे से उनका रिश्ता और उनके क्रियाकलापों में भी भिन्नता होती है। कई बार एक ही परिवार के लोग भोजन और अन्य संसाधनों का आपस में मिल-बाटकर इस्तेमाल करते हैं, एक साथ रहते और काम करते हैं और अनुष्ठानों को साथ ही संपादित करते हैं। परिवार एक बड़े समूह का हिस्सा होते हैं जिन्हें हम संबंधी कहते हैं। तकनीकी भाषा का इस्तेमाल करें तो हम संबंधयों को जाति समूह कह सकते हैं। पारिवारिक रिश्ते ‘नैसर्र्गिक’ और रक्त संब, माने जाते हैं किन्तु इन संबंधों की परिभाषा अलग-अलग तरीके से की जाती है।


कुछ समाजों में भाई-बहन ;चचेरे, मौसेरे आदि से खून का रिश्ता माना जाता है किन्तु अन्य समाज ऐसा नहीं मानते। आरंभिक समाजों के संदर्भ में इतिहासकारों को विशिष्ट परिवारों के बारे में जानकारी आसानी से मिल जाती है किन्तु सामान्य लोगों के पारिवारिक संबंधों को पुनर्निर्र्मित करना मुश्किल हो जाता है। इतिहासकार परिवार और बंधुता संबंधी विचारों का भी विश्लेषण करते हैं। इनका अध्ययन इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे लोगों की सोच का पता चलता है। संभवत: इन विचारों ने लोगों के क्रियाकलापों को प्रभावित किया होगा। इसी तरह व्यवहार ने विचारों पर भी असर डाला होगा।

2.2. पितृवंशिक व्यवस्था के आदर्श

क्या हम उन िबदुओं को निर्दिष्ट कर सकते हैं जब बंधुता के रिश्तों में परिवर्तन आया? एक स्तर पर महाभारत इसी की कहानी है। यह बांधवों के दो दलों कौरव और पांडव के बीच भूमि और सत्ता को लेकर हुए संघर्ष का चित्रण करती है। दोनों ही दल कुरु वंश से संबंधत थे जिनका एक जनपद पर शासन था। यह संघर्ष एक युद्ध में परिणत हुआ जिसमें पांडव विजयी हुए। इनके उपरांत पितृवंशिक उत्तराधिकार को उद्घोषित किया गया। हालाकि पितृवंशिकता महाकाव्य की रचना से पहले भी मौजूद थी, महाभारत की मुख्य कथावस्तु ने इस आदर्श को और सुदृढ़ किया। पितृवंशिकता में पुत्र पिता की मृत्यु के बाद उनके संसाधनों पर ;राजाओं के संदर्भ में सिहासन पर भी अधिकार जमा सकते थे। अधिकतर राजवंश ;लगभग छठी शताब्दी ई-पू- से पितृवंशिकता प्रणाली का अनुसरण करते थे। हालाकि इस प्रथा में विभिन्नता थी : कभी पुत्र के न होने पर एक भाई दूसरे का उत्तराधिकारी हो जाता था तो कभी बंधु-बांधव सिहासन पर अपना अधिकार जमाते थे। कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में स्त्रिया जैसे प्रभावती गुप्त सत्ता का उपभोग करती थीं। पितृवंशिकता के प्रति झुकाव शासक परिवारों के लिए कोई अनूठी बात नहीं थी। ऋग्वेद जैसे कर्मकांडीय ग्रंथ के मंत्रों से भी यह बात स्पष्ट होती है। यह संभव है कि धनी वर्ग के पुरुष और ब्राह्मण भी ऐसा ही दृष्टिकोण रखते थे।

2.3. विवाह के नियम

जहा पितृवंश को आगे बढ़ाने के लिए पुत्र महत्वपूर्ण थे वहा इस व्यवस्था में पुत्रियों को अलग तरह से देखा जाता था। पैतृक संसाधनों पर उनका कोई अधिकार नहीं था। अपने गोत्र से बाहर उनका विवाह कर देना ही अपेक्षित था। इस प्रथा को बहिर्विवाह पद्धति कहते हैं और इसका तात्पर्य यह था कि ऊंची प्रतिष्ठा वाले परिवारों की कम उम्र की कन्याओं और स्त्रियों का जीवन बहुत सावधानी से नियमित किया जाता था जिससे ‘उचित’ समय और ‘उचित’ व्यक्ति से उनका विवाह किया जा सके। इसका प्रभाव यह हुआ कि कन्यादान अर्थात्‌ विवाह में कन्या की भेंट को पिता का महत्वपूर्ण धार्मिक कर्तव्य माना गया। नए नगरों के उद्भव से सामाजिक जीवन अधिक जटिल हुआ। यहा पर निकट और दूर से आकर लोग मिलते थे और वस्तुओं की खरीद-फ़रोख्त के साथ ही इस नगरीय परिवेश में विचारों का भी आदान-प्रदान होता था। संभवत: इस वजह से आरंभिक विश्वासों और व्यवहारों पर प्रश्नचिन्ह लगाए गए। इस चुनौती के जवाब में ब्राह्मणों ने समाज के लिए विस्तृत आचार संहिताए तैयार कीं।

ब्राह्मणों को इन आचार संहिताओं का विशेष पालन करना होता था किन्तु बाकी समाज को भी इसका अनुसरण करना पड़ता था। लगभग 500 ई-पू- से इन मानदंडों का संकलन धर्मसूत्र व धर्मशास्त्र नामक संस्कृत ग्रंथों में किया गया। इसमें सबसे महत्वपूर्ण मनुस्मृति थी जिसका संकलन लगभग 200 ई-पू- से 200 ईसवी के बीच हुआ। हालाकि इन ग्रंथों के ब्राह्मण लेखकों का यह मानना था कि उनका दृष्टिकोण सार्वभौमिक है और उनके बनाए नियमों का सबके द्वारा पालन होना चाहिए, किन्तु वास्तविक सामाजिक संबंध कहीं अधिक जटिल थे। इस बात को भी ध्यान में रखना जरूरी है कि उपमहाद्वीप में फैली क्षेत्रीय विभिन्नता और संचार की बाधाओं की वजह से भी ब्राह्मणों का प्रभाव सार्वभौमिक कदापि नहीं था। दिलचस्प बात यह है कि धर्मसूत्र और धर्मशास्त्र विवाह के आठ प्रकारों को अपनी स्वीकृति देते हैं। इनमें से पहले चार ‘उत्तम’ माने जाते थे और बाकियों को निदित माना गया। संभव है कि ये विवाह पद्धतिया उन लोगों में प्रचलित थीं जो ब्राह्मणीय नियमों को अस्वीकार करते थे।

2.4. स्त्री का गोत्र

एक ब्राह्मणीय पद्धति जो लगभग 1000 ई-पू- के बाद से प्रचलन में आई, वह लोगों ;खासतौर से ब्राह्मणों को गोत्रों में वर्गीकृत करने की थी। प्रत्येक गोत्र एक वैदिक ऋषि के नाम पर होता था। उस गोत्र के सदस्य ऋषि के वंशज माने जाते थे। गोत्रों के दो नियम महत्वपूर्ण थे : विवाह के पश्चात स्त्रियों को पिता के स्थान पर पति के गोत्र का माना जाता था तथा एक ही गोत्र के सदस्य आपस में विवाह संबंध नहीं रख सकते थे। क्या इन नियमों का सामान्यत: अनुसरण होता था, इस बात को जानने के लिए हमें स्त्री और पुरुष नामों का विश्लेषण करना पड़ेगा जो कभी-कभी गोत्रों के नाम से उ,द्धृत होते थे। हमें कुछ नाम सातवाहनों जैसे प्रबल शासकों के वंश से मिलते हैं। इन राजाओं का पश्चिमी भारत और दक्कन के कुछ भागों पर शासन था ;लगभग दूसरी शताब्दी ई-पू से दूसरी शताब्दी ईसवी तक। सातवाहनों के कई अभिलेख प्राप्त हुए हैं जिनके आधार पर इतिहासकारों ने पारिवारिक और वैवाहिक रिश्तों का खाका तैयार किया है। कुछ सातवाहन राजा बहुपत्नी प्रथा ;अर्थात्‌ एक से अधिक पत्नी को मानने वाले थे। सातवाहन राजाओं से विवाह करने वाली रानियों के नामों का विश्लेषण इस तथ्य की ओर इंगित करता है कि उनके नाम गौतम तथा वसिष्ठ गोत्रों से उद्भूत थे जो उनके पिता के गोत्र थे। इससे प्रतीत होता है कि विवाह के बाद भी अपने पति कुल के गोत्र को ग्रहण करने की अपेक्षा, जैसा ब्राह्मणीय व्यवस्था में अपेक्षित था, उन्होंने पिता का गोत्र नाम ही कायम रखा।


यह भी पता चलता है कि कुछ रानिया एक ही गोत्र से थीं। यह तथ्य बहिर्र्विवाह पद्धति के नियमों के विरुद्ध था। वस्तुत: यह उदाहरण एक वैकल्पिक प्रथा अंतर्विवाह पद्धति अर्थात्‌ बंधुओं में विवाह संबंध को दर्शाता है जिसका प्रचलन दक्षिण भारत के कई समुदायों में अभी भी है। बांधवों ;ममेर, चचेरे इत्यादि भाई-बहन के साथ जोड़े गए विवाह संबंधों की वजह से एक सुगठित समुदाय उभर पाता था। संभवत: उपमहाद्वीप के और भागों में अन्य विविधताए भी मौजूद थीं किन्तु उनके विशिष्ट ब्योरों को पुननिर्मित करना संभव नहीं हो पाया है।

2.5. क्या माताए महत्वपूर्ण थीं?

हमने पढ़ा कि सातवाहन राजाओं को उनके मातृनाम ;माता के नाम से उद्भूत से चित्रित किया जाता था। इससे यह प्रतीत होता है कि माताए महत्वपूर्ण थीं किन्तु किसी भी निष्कर्ष पर पहुचने से पहले हमें बहुत सावधानी बरतनी होगी। सातवाहन राजाओं के संदर्भ में हमें यह ज्ञात है कि सिहासन का उत्तराधिकार पितृवंशिक होता था।

3 सामाजिक विषमताए

वर्ण व्यवस्था के दायरे में और उससे परे संभवत: आप ‘जाति’ शब्द से परिचित होंगे जो एक सोपानात्मक सामाजिक वर्गीकरण को दर्शाता है। धर्मसूत्रों और धर्मशास्त्रों में एक आदर्श व्यवस्था का उल्लेख किया गया था। ब्राह्मणों का यह मानना था कि यह व्यवस्था जिसमें स्वयं उन्हें पहला दर्जा प्राप्त है, एक दैवीय व्यवस्था है। शूद्रों और ‘अस्पृश्यों’ को सबसे निचले स्तर पर रखा जाता था। इस व्यवस्था में दर्जा संभवत: जन्म के अनुसार निधार्रित माना जाता था।


3.1. ‘उचित’ जीविका

धर्मसूत्रों और धर्मशास्त्रों में चारों वगो के लिए आदर्श ‘जीविका’ से जुड़े कई नियम मिलते हैं। ब्राह्मणों का कार्य अध्ययन, वेदों की शिक्षा, यज्ञ करना और करवाना था तथा उनका काम दान देना और लेना था। क्षत्रियों का कर्म यद्ध करना, लोगों को सुरक्षा प्रदान करना, न्याय करना, वेद पढ़ना, यज्ञ करवाना और दान-दक्षिणा देना था। अंतिम तीन कार्य वैश्यों के लिए भी थे साथ ही उनसे कृषि, गौ-पालन और व्यापार का कर्म भी अपेक्षित था। शूद्रों के लिए मात्र एक ही जीविका थी तीनों ‘उच्च’ वर्णों की सेवा करना। इन नियमों का पालन करवाने के लिए ब्राह्मणों ने दो-तीन नीतिया अपनाइ। एक, जैसा कि हमने अभी पढ़ा, यह बताया गया कि वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति एक दैवीय व्यवस्था है। दूसरा, वे शासकों को यह उपदेश देते थे कि वे इस व्यवस्था के नियमों का अपने राज्यों में अनुसरण करें। तीसरे, उन्होंने लोगों को यह विश्वास दिलाने का प्रयत्न किया कि उनकी प्रतिष्ठा जन्म पर आधारित है। किन्तु ऐसा करना आसान बात नहीं थी। अत: इन मानदंडों को बहुधा महाभारत जैसे अनेक ग्रंथों में वणित कहानियों के द्वारा बल प्रदान किया जाता था।

3.2. अक्षत्रिय राजा

शास्त्रों के अनुसार केवल क्षत्रिय राजा हो सकते थे। किन्तु अनेक महत्वपूर्ण राजवंशों की उत्पत्ति अन्य वर्णों से भी हुई थी। मौर्य वंश जिसने एक विशाल साम्राज्य पर शासन किया, के उद्भव पर गर्मजोशी से बहस होती रही है। बाद के बौद्ध ग्रंथों में यह इंगित किया गया है कि वे क्षत्रिय थे किन्तु ब्राह्मणीय शास्त्र उन्हें ‘निम्न’ कुल का मानते हैं। शुंग और कण्व जो मौयो के उत्तराधिकारी थे, ब्राह्मण थे। वस्तुत: राजनीतिक सत्ता का उपभोग हर वह व्यक्ति कर सकता था जो समर्थन और संसाधन जुटा सके। राजत्व क्षत्रिय कुल में जन्म लेने पर शायद ही निर्भर करता था। अन्य शासकों को, जैसे शक जो मध्य एशिया से भारत आए, ब्राह्मण उन्हें मलेच्छ, बर्बर अथवा अन्यदेशीय मानते थे। किन्तु संस्कृत के संभवत: आरंभिक अभिलेखों में से एक में प्रसिद्ध शक राजा रुद्रदामन ;लगभग दूसरी शताब्दी ईसवीद द्वारा सुदर्शन सरोवर के जीर्णोद्धार का वर्णन मिलता है।

इससे यह ज्ञात होता है कि शक्तिशाली मलेच्छ संस्कृतीय परिपाटी से अवगत थे। एक और दिलचस्प बात यह है कि सातवाहन कुल के सबसे प्रसिद्ध शासक गोतमी-पुत्त सिरी-सातकनि ने स्वयं को अनूठा ब्राह्मण और साथ ही क्षत्रियों के दर्प का हनन करने वाला बताया था। उसने यह भी दावा किया कि चार वर्णों के बीच विवाह संबंध होने पर उसने रोक लगाई। किन्तु फ़िर भी रुद्रदामन के परिवार से उसने विवाह संबंध स्थापित किए। जैसा आप इस उदाहरण में देख सकते हैं, जाति प्रथा के भीतर आत्मसात होना बहुधा एक जटिल सामाजिक प्रक्रिया थी। सातवाहन स्वयं को ब्राह्मण वर्ण का बताते थे जबकि ब्राह्मणीय शास्त्र के अनुसार राजा को क्षत्रिय होना चाहिए। वे चतुर्वर्णी व्यवस्था की मर्यादा बनाए रखने का दावा करते थे किन्तु साथ ही उन लोगों से वैवाहिक संबंध भी स्थापित करते थे जो इस वर्ण व्यवस्था से ही बाहर थे और जैसा हमने देखा वह अंतर्र्विवाह पद्धति का पालन करते थे न कि बहिर्र्विवाह प्रणाली का जो ब्राह्मणीय ग्रंथों में प्रस्तावित है।

3.3. जाति और सामाजिक गतिशीलता

ये जटिलताए समाज के वर्गीकरण के लिए शास्त्रों में प्रयुक्त एक और शब्द जाति से भी स्पष्ट होती हैं। ब्राह्मणीय सिद्धांत में वर्ण की तरह जाति भी जन्म पर आधारित थी। किन्तु वर्ण जहा मात्र चार थे वहीं जातियों की कोई निश्चित संख्या नहीं थी। वस्तुत: जहा कहीं भी ब्राह्मणीय व्यवस्था का नए समुदायों से आमना-सामना हुआ – उदाहरणत: जंगल में रहने वाले निषाद या कि व्यावसायिक वर्ग जैसे सुवर्णकार, जिन्हें चार वर्णों वाली व्यवस्था में समाहित करना संभव नहीं था, उनका जाति में वर्गीकरण कर दिया गया। वे जातिया जो एक ही जीविका अथवा व्यवसाय से जुड़ी थीं उन्हें कभी-कभी श्रेणियों में भी संगठित किया जाता था। हालाकि इन समुदायों के इतिहास का लेखा-जोखा हमें कम ही प्राप्त होता है, किन्तु कुछ अपवाद हैं जैसे कि मंदसौर ;मध्य प्रदेश से मिला अभिलेख ;लगभग पाचवीं शताब्दी ईसवी। इसमें रेशम के बुनकरों की एक श्रेणी का वर्णन मिलता है जो मूलत: लाट ;गुजरात प्रदेश के निवासी थे और वहा से मंदसौर चले गए थे, जिसे उस समय दशपुर के नाम से जाना जाता था। यह कठिन यात्रा उन्होंने अपने बच्चों और बांधवो के साथ संपन्न की। उन्होंने वहा के राजा की महानता के बारे में सुना था अत: वे उसके राज्य में बसना चाहते थे। यह अभिलेख जटिल सामाजिक प्रक्रियाओं की झलक देता है तथा श्रेणियों के स्वरूप के विषय में अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। हालाकि श्रेणी की सदस्यता शिल्प में विशेषज्ञता पर निर्भर थी। कुछ सदस्य अन्य जीविका भी अपना लेते थे। इस अभिलेख से यह भी ज्ञात होता है कि सदस्य एक व्यवसाय के अतिरिक्त और चीजों में भी सहभागी होते थे। सामूहिक रूप से उन्होंने शिल्पकर्म से अर्जित धन को सूर्य देवता के सम्मान में मंदिर बनवाने पर खर्च किया।

3.4. चार वर्णों के परे : एकीकरण

उपमहाद्वीप में पाई जाने वाली विविधताओं की वजह से यहा हमेशा से ऐसे समुदाय रहे हैं जिन पर ब्राह्मणीय विचारों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। संस्कृत साहित्य में जब ऐसे समुदायों का उल्लेख आता है तो उन्हें कई बार विचित्र, असभ्य और शुवत चित्रित किया जाता है। ऐसे कुछ उदाहरण वन प्रांतर में बसने वाले लोगों के हैं जिनके लिए शिकार और कंद-मूल संग्रह करना जीवन-निर्वाह का महत्वपूर्ण साधन था। निषाद वर्ग जिससे एकलव्य जुड़ा माना जाता था, इसी का उदाहरण है। यायावर पशुपालकों के समुदाय को भी शंका की दृष्टि से देखा जाता था क्योंकि उन्हें आसानी से बसे हुए कृषि कर्मियों के साचे के अनुरूप नहीं ढाला जा सकता था। यदा-कदा उन लोगों को जो असंस्कृत भाषी थे, उन्हें मलेच्छ कहकर हेय दृष्टि से देखा जाता था। किन्तु इन लोगों के बीच विचारों और मतों का आदान-प्रदान होता था। उनके संबंधों के स्वरूप के बारे में हमें महाभारत की कथाओं से ज्ञात होता है।


3.5. चार वर्णों के परे : अधीनता और संघर्ष

ब्राह्मण कुछ लोगों को वर्ण व्यवस्था वाली सामाजिक प्रणाली के बाहर मानते थे। साथ ही उन्होंने समाज के कुछ वगो को ‘अस्पृश्य’ घोषित कर सामाजिक वैषम्य को और अधिक प्रखर बनाया। ब्राह्मणों का यह मानना था कि कुछ कर्म, खासतौर से वे जो अनुष्ठानों के संपादन से जुड़े थे, पुनीत और ‘पवित्र’ थे, अत: अपने को पवित्र मानने वाले लोग अस्पृश्यों उपमहाद्वीप के सबसे समृद्ध ग्रंथों में से एक महाभारत का विश्लेषण करते हुए हम अपना ध्यान एक ऐसे विशाल महाकाव्य पर केंद्रित कर रहे हैं जो अपने वर्तमान रूप में एक लाख श्लोकों से अधिक है और विभिन्न सामाजिक श्रेणियों व परिस्थितियों का लेखा-जोखा है। इस ग्रंथ की रचना एक हजार वर्ष तक होती रही ;लगभग 500 ई-पू- से। इसमें निहित कुछ कथाए तो इस काल से पहले भी प्रचलित थीं। महाभारत की मुख्य कथा दो परिवारों के बीच हुए यद्ध का चित्रण है। इस ग्रंथ के कुछ भाग विभिन्न सामाजिक समुदायों के आचार-व्यवहार के मानदंड तय करते हैं।

यदा-कदा ;किन्तु हमेशा नहीं इस ग्रंथ के मुख्य पात्र इन सामाजिक मानदंडों का अनुसरण करते हुए दिखाई पड़ते हैं। मानदंडों का अनुसरण व उनकी अवहेलना क्या इंगित करती है? भोजन नहीं स्वीकार करते थे। पवित्रता के इस पहलू के ठीक विपरीत कुछ कार्य ऐसे थे जिन्हें खासतौर से ‘दूषित’ माना जाता था। शवों की अंत्येष्टि और मृत पशुओं को छूने वालों को चांडाल कहा जाता था। उन्हें वर्ण व्यवस्था वाले समाज में सबसे निम्न कोटि में रखा जाता था। वे लोग जो स्वयं को सामाजिक क्रम में सबसे ऊ…पर मानते थे, इन चांडालों का स्पर्श, यहा तक कि उन्हें देखना भी, अपवित्रकारी मानते थे।
मनुस्मृति में चाडालों के ‘कर्तव्यों’ की सूची मिलती है। उन्हें गाव के बाहर रहना होता था। वे फेके हुए बर्तनों का इस्तेमाल करते थे, मरे हुए लोगों के वस्त्र तथा लोहे के आभूषण पहनते थे। रात्रि में वे गांव और नगरों में चल-फ़िर नहीं सकते थे। संबंधियों से विहीन मृतकों की उन्हें अंत्येष्टि करनी पड़ती थी तथा वधक के रूप में भी कार्य करना होता था। चीन से आए बौद्ध भिक्षु फाह-शिएन ;लगभग पाचवीं शताब्दी ईसवी, का कहना है कि अस्पृश्यों को सड़क पर चलते हुए करताल बजाकर अपने होने की सूचना देनी पड़ती थी जिससे अन्य जन उन्हें देखने के दोष से बच जाए। एक और चीनी तीर्थयात्री श्वैन-त्सांग ;लगभग सातवीं शताब्दी ईसवी कहता है कि वधक और सफ़ाई करने वालों को नगर से बाहर रहना पड़ता था। अब्राह्मणीय ग्रंथों में चित्रित चांडालों के जीवन का विश्लेषण करके इतिहासकारों ने यह जानने का प्रयास किया है कि क्या चांडालों ने शास्त्रों में निधार्रित अपने हीन जीवन को स्वीकार कर लिया था? यदा-कदा इन ग्रंथों के चित्रण और ब्राह्मणीय ग्रंथ में हुए चित्रण में समानता है परंतु कभी-कभी हमें एक भिन्न सामाजिक वास्तविकता का भी संकेत मिलता है।

4. जन्म के परे : संसाधन और प्रतिष्ठा

यदि आप आर्थिक संबंधों पर विचार करें तो देखेंगे कि दास, भूमिहीन खेतिहर मजदूर, शिकारी, मछुआरे, पशुपालक, किसान,ग्राममुखिया, शिल्पकार, वणिक और राजा सभी का उपमहाद्वीप के विभिन्न हिस्सों में सामाजिक अभिनायक के रूप में उद्भव हुआ। उनके सामाजिक स्थान इस बात पर निर्भर करते थे कि आर्थिक संसाधनों पर उनका कितना नियंत्रण है। अब हम विशेष संदभो में इस बात का परीक्षण करेंगे कि संसाधनों पर नियंत्रण के क्या सामाजिक आशय थे।

4.1. संपत्ति पर स्त्री और पुरुष के भिन्न अधिकार

अब हम महाभारत के एक महत्वपूर्ण प्रकरण पर विचार करेंगे। कौरव और पांडव के बीच लंबे समय से चली आ रही प्रतिस्पर्धा के फलस्वरूप दुर्योधन ने युधष्ठिर को द्यूत क्रीड़ा के लिए आमंत्रित किया। युधष्ठिर अपने प्रतिद्वंद्वी द्वारा धोखा दिए जाने के कारण इस द्यूत में स्वर्ण, हस्ति, रथ, दास, सेना, कोष, राज्य तथा अपनी प्रजा की संपत्ति, अनुजों और फ़िर स्वयं को भी दाव पर लगा कर गवा बैठे। इसके उपरांत उन्होंने पांडवों की सहपत्नी द्रौपदी को भी दाव पर लगाया और उसे भी हार गए। संपत्ति के स्वामित्व के मुद्दे जो इन कहानियों में वर्णित हैं, धर्मसूत्र और धर्मशास्त्रों में भी उठाए गए हैं।

मनुस्मृति के अनुसार पैतृक जायदाद का माता-पिता की मृत्यु के बाद सभी पुत्रों में समान रूप से बंटवारा किया जाना चाहिए किन्तु ज्येष्ठ पुत्र विशेष भाग का अधिकारी था। स्त्रिया इस पैतृक संसाधन में हिस्सेदारी की माग नहीं कर सकती थीं। किन्तु विवाह के समय मिले उपहारों पर स्त्रियों का स्वामित्व माना जाता था और इसे स्त्रीधन ;अर्थात्‌ स्त्री का धनद्ध की संज्ञा दी जाती थी। इस संपत्ति को उनकी संतान विरासत के रूप में प्राप्त कर सकती थी और इस पर उनके पति का कोई अधिकार नहीं होता था। किन्तु मनुस्मृति स्त्रियों को पति की आज्ञा के विरुद्ध पारिवारिक संपत्ति अथवा स्वयं अपने बहुमूल्य धन के गुप्त संचय के विरुद्ध भी चेतावनी देती है। आपने एक धनाढ्‌य वाकाटक महिषी प्रभावती गुप्त के बारे में पढ़ा ही है। किन्तु अधिकतर अभिलेखीय व साहित्यिक साक्ष्य इस बात की ओर इशारा करते हैं कि यद्यपि उच्च वर्ग की महिलाए संसाधनों पर अपनी पैठ रखती थीं, सामान्यत: भूमि, पशु और धन पर पुरुषों का ही नियंत्रण था। दूसरे शब्दों में, स्त्री और पुरुष के बीच सामाजिक हैसियत की भिन्नता संसाधनों पर उनके नियंत्रण की भिन्नता की वजह से अधिक प्रखर हुई।

4.2. वर्ण और संपत्ति के अधिकार

ब्राह्मणीय ग्रंथों के अनुसार संपत्ति पर अधिकार का एक और आधार ;लैंगिक आधार के अतिरिक्तद्ध वर्ण था। जैसा हम जानते है कि शूद्रों के लिए एकमात्र ‘जीविका’ ऐसी सेवा थी जिसमें हमेशा उनकी इच्छा शामिल नहीं होती थी। हालाकि तीन उच्च वर्णों के पुरुषों के लिए विभिन्न जीविकाओं की संभावना रहती थी। यदि इन सब विधानों को वास्तव में कार्यान्वित किया जाता तो ब्राह्मण और क्षत्रिय सबसे धनी व्यक्ति होते। यह तथ्य कुछ हद तक सामाजिक वास्तविकता से मेल खाता था। साहित्यिक परंपरा में पुरोहितों और राजाओं का वर्णन मिलता है जिसमें राजा अधिकतर धनी चित्रित होते हैं पुरोहित भी सामान्यत: धनी दर्शाए जाते हैं। हालाकि यदा-कदा निर्धन ब्राह्मण का भी चित्रण मिलता है। एक और स्तर पर, जहा समाज के ब्राह्मणीय दृष्टिकोण को धर्मसूत्र और धर्मशास्त्र में संहिताबद्ध किया जा रहा था अन्य परंपराओं ने वर्ण व्यवस्था की आलोचना प्रस्तुत की। इनमे से सर्वविदित आलोचनाए प्रारंभिक बौद्ध धर्म में ;लगभग छठी शताब्दी ई-पू- से, विकसित हुई। बौद्धों ने इस बात को अंगीकार किया कि समाज में विषमता मौजूद थी किन्तु यह भेद न तो नैसर्गिक थे और न ही स्थायी बौद्धों ने जन्म के आधार पर सामाजिक प्रतिष्ठा को अस्वीकार किया।

4.3. एक वैकल्पिक सामाजिक रूपरेखा : संपत्ति में भागीदारी

अभी तक हम उन परिस्थितियों का परीक्षण करते रहे हैं जहा लोग अपनी संपत्ति के आधार पर सामाजिक प्रतिष्ठा का दावा करते थे, या पिफर उन्हें वह स्थिति प्रदान की जाती थी। किन्तु समाज में अन्य संभावनाए भी थीं। वह स्थिति जहा दानशील आदमी का सम्मान किया जाता था तथा कृपण व्यक्ति अथवा वह जो स्वयं अपने लिए संपत्ति संग्रह करता था, घृणा का पात्र होता था। प्राचीन तमिलकम्‌ एक ऐसा ही क्षेत्र था जहा उपरोक्त आदशो को संजोया जाता था।

जैसा हम जानते है इस क्षेत्र में 2000 वर्ष पहले अनेक सरदारिया थीं। यह सरदार अपनी प्रशंसा गाने वाले चारण और कवियों के आश्रयदाता होते थे। तमिल भाषा के संगम साहित्यिक संग्रह में सामाजिक और आर्थिक संबंधों का अच्छा चित्रण है जो इस ओर इंगित करता है कि हालाकि धनी और निर्धन के बीच विषमताए थीं, जिन लोगों का संसाधनों पर नियंत्रण था उनसे यह अपेक्षा की जाती थी कि वे मिल-बाट कर उसका उपयोग करेंगे।

5. सामाजिक विषमताओं की व्याख्या : एक सामाजिक अनुबंध

बौद्धों ने समाज में फैली विषमताओं के संदर्भ में एक अलग अवधारणा प्रस्तुत की। साथ ही समाज में फैले अंतर्विरोधों को नियमित करने के लिए जिन संस्थानों की आवश्यकता थी, उस पर भी अपना दृष्टिकोण सामने रखा। सुत्तपिटक नामक ग्रंथ में एक मिथक वर्णित है जो यह बताता है कि प्रारंभ में मानव पूर्णतया विकसित नहीं थे। वनस्पति जगत भी अविकसित था। सभी जीव शांति के एक निर्बाध लोक में रहते थे और प्रकृति से उतना ही ग्रहण करते थे जितनी एक समय के भोजन की आवश्यकता होती है। किन्तु यह व्यवस्था क्रमश: पतनशील हुई।

मनुष्य अधिकाधक लालची, प्रतिहिंसक और कपटी हो गए। इस स्थिति में उन्होंने विचार किया कि: क्या हम एक ऐसे मनुष्य का चयन करें जो उचित बात पर क्रोधित हो, जिसकी प्रताड़ना की जानी चाहिए उसको प्रताड़ित करे और जिसे निष्कासित किया जाना हो उसे निष्कासित करे? बदले में हम उसे चावल का अंश देंगे— सब लोगों द्वारा चुने जाने के कारण उसे महासम्मत्त की उपाधि प्राप्त होगी। इससे यह ज्ञात होता है कि राजा का पद लोगों द्वारा चुने जाने पर निर्भर करता था। ‘कर’ वह मूल्य था जो लोग राजा की इस सेवा के बदले उसे देते थे। यह मिथक इस बात को भी दर्शाता है कि आर्थिक और सामाजिक संबंधों को बनाने में मानवीय कर्म का बड़ा हाथ था। इसके कुछ और आशय भी हैं। उदाहरणत: यदि मनुष्य स्वयं एक प्रणाली को बनाए रखने के लिए जिम्मेदार थे तो भविष्य में उसमें परिवर्तन भी ला सकते थे। 

इतिहासकार और महाभारत

यदि आप इस आलेख के स्रोतों की ओर गौर करें तो आप पाएगे कि इतिहासकार किसी ग्रंथ का विश्लेषण करते समय अनेक पहलुओं पर विचार करते हैं तथा इस बात का परीक्षण करते हैं कि ग्रंथ किस भाषा में लिखा गया : पालि, प्राकृत अथवा तमिल, जो आम लोगों द्वारा बोली जाती थी अथवा संस्कृत जो विशिष्ट रूप से पुरोहितों और खास वर्ग द्वारा प्रयोग में लाई जाती थी। इतिहासकार ग्रंथ के प्रकार पर भी ध्यान देते हैं। क्या यह ग्रंथ ‘मंत्र’ थे जो अनुष्ठानकर्ताओं द्वारा पढ़े और उच्चरित किए जाते थे अथवा ये ‘कथा’ ग्रंथ थे जिन्हें लोग पढ़ और सुन सकते थे तथा दिलचस्प होने पर जिन्हें दुबारा सुनाया जा सकता था? इसके अलावा इतिहासकार लेखक; के बारे में भी जानने का प्रयास करते हैं जिनके दृष्टिकोण और विचारों ने ग्रंथों को रूप दिया। इन ग्रंथों के श्रोताओं का भी इतिहासकार परीक्षण करते हैं क्योंकि लेखकों ने अपनी रचना करते समय श्रोताओं की अभिरुचि पर ध्यान दिया होगा। इतिहासकार ग्रंथ के संभावित संकलन/रचना काल और उसकी रचनाभूमि का भी विश्लेषण करते हैं। इन सब मुद्दों का जायजा लेने के बाद ही इतिहासकार किसी भी ग्रंथ की विषयवस्तु का इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए इस्तेमाल करते हैं। महाभारत जैसे विशाल और जटिल ग्रंथ के संदर्भ में, आप कल्पना कर सकते हैं कि यह कार्य कितना कठिन होगा।

भाषा एवं विषयवस्तु

अब हम ग्रंथ की भाषा की ओर देखते हैं। महाभारत का जो पाठ हम इस्तेमाल कर रहे हैं वह संस्कृत में है ;यद्यपि अन्य भाषाओं में भी इसके संस्करण मिलते हैं। किन्तु महाभारत में प्रयुक्त संस्कृत वेदों अथवा प्रशस्तियों में वर्णित संस्कृत से कहीं अधिक सरल है। अत: यह संभव है कि इस ग्रंथ को व्यापक स्तर पर समझा जाता था। इतिहासकार इस ग्रंथ की विषयवस्तु को दो मुख्य शीर्षकों आख्यान तथा उपदेशात्मक-के अंतर्गत रखते हैं। आख्यान में कहानियों का संग्रह है और उपदेशात्मक भाग में सामाजिक आचार-विचार के मानदंडों का चित्रण है। किन्तु यह विभाजन पूरी तरह अपने में एकांकी नहीं है-उपदेशात्मक अंशों में भी कहानिया होती हैं और बहुधा आख्यानों में समाज के लिए एक सबक निहित रहता है। अधिकतर इतिहासकार इस बात पर एकमत हैं कि महाभारत वस्तुत: एक भाग में नाटकीय कथानक था जिसमें उपदेशात्मक अंश बाद में जोड़े गए। आरंभिक संस्कृत परंपरा में महाभारत को ‘इतिहास’ की श्रेणी में रखा गया है। इस शब्द का अर्थ है : ‘ऐसा ही था।’ क्या महाभारत में, सचमुच में हुए किसी यद्ध का स्मरण किया जा रहा था? इस बारे में हम निश्चित रूप से कुछ नहीं कह सकते। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि स्वजनों के बीच हुए युद्ध की स्मृति ही महाभारत का मुख्य कथानक है। अन्य इस बात की ओर इंगित करते हैं कि हमें युद्ध की पुष्टि किसी और साक्ष्य से नहीं होती।

लेखक-एक या कई और तिथिया

यह ग्रंथ किसने लिखा? इस प्रश्न के कई उत्तर हैं। संभवत: मूल कथा के रचयिता भाट सारथी थे जिन्हें ‘सूत’ कहा जाता था। ये क्षत्रिय योद्धाओं के साथ युद्धक्षेत्र में जाते थे और उनकी विजय व उपलब्धियो के बारे में कविताए लिखते थे। इन रचनाओं का प्रेषण मौखिक रूप में हुआ। पाचवीं शताब्दी ई-पू- से ब्राह्मणों ने इस कथा परंपरा पर अपना अधिकार कर लिया और इसे लिखा। यह वह काल था जब कुरु और पांचाल जिनके इर्द-गिर्द महाभारत की कथा घूमती है, मात्र सरदारी से राजतंत्र के रूप में उभर रहे थे। क्या नए राजा अपने इतिहास को अधिक नियमित रूप से लिखना चाहते थे? यह भी संभव है कि नए राज्यों की स्थापना के समय होने वाली उथल-पुथल के कारण पुराने सामाजिक मूल्यों के स्थान पर नवीन मानदंडों की स्थापना हुई जिनका इस कहानी के कुछ भागों में वर्णन मिलता है। लगभग 200 ई-पू- से 200 ईसवी के बीच हम इस ग्रंथ के रचनाकाल का एक और चरण देखते हैं। यह वह समय था जब विष्णु देवता की आराधना प्रभावी हो रही थी, तथा श्रीकृष्ण को जो इस महाकाव्य के महत्वपूर्ण नायकों में से हैं, उन्हें विष्णु का रूप बताया जा रहा था। कालांतर में लगभग 200-400 ईसवी के बीच मनुस्मृति से मिलते-जुलते बृहत उपदेशात्मक प्रकरण महाभारत में जोड़े गए। इन सब परिवधर्नों के कारण यह ग्रंथ जो अपने प्रारंभिक रूप में संभवत: 10ए000 श्लोकों से भी कम रहा होगा, बढ़ कर एक लाख श्लोकों वाला हो गया। साहित्यिक परंपरा में इस बृहत रचना के रचयिता ऋषि व्यास माने जाते हैं।


सदृशता की खोज


महाभारत में अन्य किसी भी प्रमुख महाकाव्य की भाति युद्धों, वनों,राजमहलों और बस्तियों का अत्यंत जीवंत चित्रण है। 1951-52 में पुरातत्ववेत्ता बी-बी- लाल ने मेरठ जिले ;उ-प्र के हस्तिनापुर नामक एक गाव में उत्खनन किया। क्या यह गाव महाकाव्य में वर्णित हस्तिनापुर था? हालाकि नामों की समानता मात्र एक संयोग हो सकता है किन्तु गंगा के ऊ…परी दोआब वाले क्षेत्र में इस पुरास्थल का होना जहा कुरु राज्य भी स्थित था, इस ओर इंगित करता है कि यह पुरास्थल कुरुओं की राजधानी हस्तिनापुर हो सकता है ।
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सैंधव लोगो की धार्मिक मान्यताएँ

भारतीय इतिहास के प्राचीनतम वैभव की परिकल्पना को तब जोरदार बल मिला जब १९२१ मे दयाराम साहनी द्वारा हड़प्पा की खुदाई की गई। 2500 ई. पू.. के लगभग भारत के उत्तरी पश्चिमी भाग से एक ऐसी विकसित सभ्यता का ज्ञान 1921 ई. में लोगों के समक्ष हड़प्पा और मोहनजोदड़ो नामक दो केन्द्रों की खुदाई से आना आरम्भ हुआ जिसकी तुलना में तत्कालीन विश्व की प्राचीनतम अन्य सभ्यताएं अपने विकास के क्रम में बहुत पीछे छूट जाती है। इस सभ्यता के ज्ञान से भारतीय इतिहास का आद्यैतिहासिक काल बहुत पहले चला जाता है। यह इस देश का गौरव रहा है कि पश्चिमी विश्व जब जंगली सभ्यता के आंचल में ढँका था तो एशिया महाद्वीप के इस भारत देश में एक अत्यन्त विकासमान सभ्य लोग रहते थे। इनका ज्ञान पुस्तकों से नहीं, उनकी लिखित सामाग्रियों से नहीं और न उनके पठनीय लेखों से अपितु वहां कि उत्खनित सामाग्रियों से प्राप्त होता है। उनकी सभ्यता में धर्म का पक्ष अत्यन्त समुन्नत था। एशिया की समकालिक अन्य पुरातन सभ्यताओं मिश्र, बाबुलोनियाँ आदि में धर्म का वह बहुविधीय स्वरूप हमें नहीं मिलता न इतना वैज्ञानिक पैठ ही मिलता है जितना हड़प्पा की सभ्यता में।

इस सभ्यता का उदय सिंधु नदी की घाटी में होने के कारण इसे सिंधु सभ्यता तथा इसके प्रथम उत्खनित एवं विकसित केन्द्र हड़प्पा के नाम पर हड़प्पा सभ्यता एवं आद्यैतिहासिक कालीन होने के कारण आद्यैतिहासिक भारतीय सभ्यता आदि नामों से जानते हैं। इनका विस्तार बलुचिस्तान, सिन्ध, हरियाणा, गुजरात, पंजाब, राजस्थान, पश्चिमी उत्तरप्रदेश आदि विस्तृत क्षेत्र में था। ऐसा उत्खनन से ज्ञात होता है। इन सभी क्षेत्रों में स्थिति केन्द्रों की खुदाई से समान सभ्यता के अवशेष मिलते है। अतः इस व्यापक भाग में उस समय हड़प्पा धर्म अवश्य ही पल्लवित रहा होगा।





हड़प्पा धर्म के स्वरूपों के विषय में प्राप्त जानकारी के अनुसार उसकी प्रमुख विशेषताएं निम्न ज्ञात होती हैं-

1. इस सभ्यता में प्रकृति से चलकर देवत्व तक की यात्रा धर्म ने तय की थी। एक ओर हम वृक्ष पूजा देखते हैं तो दूसरी ओर पशुपति शिव की मूर्ति तथा व्यापक देवी पूजा।

2. यहाँ देवता और दानव दोनों ही उपास्य थे। देव मूर्तियों के अतिरिक्त अनेक दानवीयस्वरूपों का यहाँ के ठीकड़ों या मुहरों पर आरेखन इस बात का परिचायक है। वृक्ष से लड़ता शेर दानवीय भावना का उदगार ही तो कहा जा सकता है।

3. धर्म में आध्यात्म और कर्मकाण्ड दोनों ही यहां साथ उभरे हैं। यहाँ से प्राप्त धड़ विहीन ध्यानावसित संन्यासी की आकृति एक ओर आध्यात्मिक चेतना को उजागर करती है तो दूसरी ओर देवी के सम्मुख पशुबलि के लिए बँधे बकरे की आकृति जो ठिकड़े पर अंकित है कर्मकाण्ड की गहनतम भावना का घोतक है।

4. उपासना इसका एक व्यापक अंग रहा है। नृत्य संगीत आदि के बीच देवी की पूजा को प्रदर्शित करने वाला ठिकड़ा भी यही व्यक्त करता है।

5. कुछ ऐसे धर्मों की जानकारी यहाँ के ठिकड़ो से मिलती हैं जिसकी सूचना इस सभ्यता के पतन के लगभग एक हजार वर्ष बाद हमें लिखित साहित्य प्रदान करते हैं जैसे मातृ देवियों की उपासना।

6. प्रतीकों को धर्म में स्थान प्राप्त हो चुका था। सूर्य की तरह गोल रेखा वाली उभरती आकृति, स्वस्तिक आदि इस तथ्य के पोषक हैं कि भले ही विष्णु की मूर्ति यहाँ नहीं मिली पर वैष्णव धर्म के प्रतीक यहाँ विद्यमान थे।

7. धार्मिक मान्यता और विश्वासों का यह युग था। यहाँ शिवलिंग के नीचे गड़े ताबीजों की तरह के पत्थर के टुकड़े मिले हैं। जिसके एक किनारे पर छिद्र बने हैं। सम्भवतः शिव के द्वारा अभिमंत्रित करने के लिए ही ये लिंग के के नीचे गाडे़ गये होंगे। अन्य कुछ ठिक़डो में मानव देवताओं के साथ नृत्य संगीत तथा धार्मिक उत्सवों को मना रहे हैं।

8. मंत्र-तंत्र में भी इनका विश्वास रहा होगा। मुहरों पर बने चिन्हों के ऊपर कुछ अपठनीय लिपि में लिखा है। इसे कोई चित्रांकित लिपि कहता है, कोई मात्र रेखा समूह मानता है। पर ये मंत्र रहे होगें। कुछ मुहरों पर तो विचित्र रेखाएं बनाई गई हैं मानो आज के जंत्र-तंत्र हो।

9. लोक-धर्म का भी यहां चलन था। कुछ मुहरों पर घेरों के भीतर वृक्ष में कुछ में फण निकाले नाग की आकृति आदि लोकजीवन की धार्मिक भावना को व्यक्त करते हैं।


प्रमुख धार्मिक स्वरूप

(1) शैव धर्म


(i) पशुपति मूर्ति :- यहाँ एक मुहर मिली है। इस पर एक तिपाई पर एक व्यक्ति विराजमान है। इसका एक पैर मुड़ा है और एक नीचे की ओर लटका है। इसके तीन सिर हैं तथा सिर पर तिन सींग हैं। इसके हाथ दोनों घुटनो पर हैं तथा इसकी आकृति ध्यानावस्थित है। इसके दोनों ओर पशु हैं। इसकी छाती पर त्रिशूल की आकृति अंकित हैं। मार्शल के अनुसार सिंधुघाटी से मिली यह मूर्ति आज के शंकर भगवान की है। मैके ने भी इसे शिव की मूर्ति माना है। कुछ लोग इसे पशुपति की मूर्ति मानते हैं। जो भी हो या शिव के पशुपति रूप की मूर्ति निर्विवाद लगती है। इसके तीन सिर शिव के त्रिनेत्र के द्योतक हैं तथा तीन सींघ शिव के त्रिसूल के प्रतीक स्वरूप है।

(ii) नर्तक शिव :- यहाँ से प्राप्त दो कबन्ध प्रस्तर मूर्तियाँ जो पैरों की भावभंगिमा के कारण नृत्य की स्थिति का बोध कराती हैं नर्तक शिव की मानी जाती हैं। कुछ इतिहासकारों ने इन्हें नृत्यमुद्रा में उर्ध्वलिंगी होने का भी अनुमान लगाया है।

(iii) योगी शिव :- यहाँ के एक मुहर पर योग मुद्रा में ध्यान की स्थिति बैठे शिव की आकृति का अंकन है। इसके सामने दो तथा दोनों बगल में बैठी एक-एक सर्प की आकृति बनी है।

(iv) बनचारी शिव :- शिव का एक रूप बनवासी का भी होता है। यहाँ एक मुहर पर तीर-धनुष चलाते हुए एक आकृति मिली है। इसे शिव का बनचारी रूप माना जाता है।

(v) लिंग पूजा :- बड़े तथा छोटे शिव लिंग यहाँ बहुत से मिले हैं। कुछ के ऊपर छेद हैं जैसे ये धागा में पिरोकर गले में पहनने के काम आते होंगे। बड़े लिंग चूना पत्थर और छोटे घोंघे के बने हैं। इनकी पूजा विभिन्न समुदायों द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार से करने का अनुमान लगाया जा सकता है।


इन विविध प्रकार की शिव मूर्तियों की प्राप्ति के आधर पर अनुमान किया जा सकता है कि

(अ) शिव आर्यों के पूर्व भारत के मूल निवासियों, जंगली कबीलों तथा आर्येतर जातियों के देवता प्रारम्भ से रहे हैं। इसी से इनका रंग काला था जबकि आर्य गौर वर्ण के थे। अगर यह आर्यों के देवता रहे होते तो इनका भी रंग गोरा ही वर्णित होता। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि जंगली पशु उनके साथ जुड़े हैं जैसे सर्प, सांढ़ आदि। जंगली कबीलों के लोग शक्तिशाली होते हैं तभी शिव शक्ति के देवता के रूप में भी भारतीय जीवन में घुल-मिले हैं। इनके साथ लगा होता है वाहन नन्दी, बैल जो शक्ति का प्रतीक है। सांप भी इसी प्रकार का एक जुझारू जीव इनके साथ जुड़ा है। ये बलशाली और वन्य पशु हैं जो शिव के साथ जुड़े होते हैं।

(ब) शिव को उत्पादन के देवता के रूप में भी पूजा जाता था। शिव के साथ सांढ़ का साहचर्य उनके उस काल के उत्पादक देवता होने का बोधक है । आज भी कृषि में उत्पादन के लिए सांढ़ों तथा बैलों का प्रयोग किया जाता है। शिवलिंग का यहाँ मिलना डॉ.डी.डी. कौशम्बी के अनुसार, उत्पादन का द्योतक है।

(स) प्राचीन भारत में शिवपूजा का श्रीगणेश हड़प्पा निवासियों के समय से ही माना जाता सकता है। शिव के विविध रूप मानवाकृति, लिंगायत, पशुपति आदि इसी समय से प्रचलन में आ चुके थे। यही पीछे चलकर हिन्दू शैव परिवार में अलग-अलग धार्मिक सम्प्रदायों के रूप में प्रमुख स्थान ग्रहण कर लिए।

(द) योग मुद्रा की शिव मूर्तियों से स्पष्ट है कि योग क्रिया का विकास भी शिव के साथ जुड़ा है। यह मान्यता है कि उनकी योगसाधना अनादिकाल से चली आ रही है। योग कि विधि का भी बहुत कुछ ज्ञान यहां से उनकी प्राप्त विभिन्न योग मुद्राओं की मूर्तियों से परिलक्षित होता है। यहाँ से आगे चलकर पशुपति योग का विकास हुआ। यहाँ से प्राप्त संन्यासी की धड़ मूर्ति जिसकी आंखें अर्ध निमीलित हैं, ध्यान केन्द्रित है तथा उसकी आंखे नासिकाग्र पर टिकी हैं आदि विशेषताएं ही योग साधना का पहला आधार बना होगा। यही योग का पहला चरण है। अतः योग का प्रारम्भ भी शैव धर्म का देन रहा होगा।

(य) शंकर का नाम पौराणिक काल में भूतनाथ प्रसिद्ध हुआ। पर भूत-प्रेतों के प्रति लोगों का विश्वास सिंधु सभ्यता के समय से ही उभर चुका था और सम्भव है कि उस समय शंकर ही उनके स्वामी रहे हों। तब भी शुभ-अशुभ प्रभावों की मान्यताएं थीं। इनसे बचने के लिए योनिपूजा भी सिन्धु सभ्यता में प्रचिलित थी। कुछ विशिष्ट बीमारियों का संकेत यहां से उपचारात्मक सामग्रियों के प्राप्ति से होती है जैसे बारहसिंगे की सींग का भस्म आदि इनसे छुटकारा पाने के लिए ही छोटे-छोटे लिंगों को योनि के साथ ताबीज की तरह गले में धारण करते होंगे। इसी से सिंधु घाटी में बहुत से ऐसे योनि युक्त शिवलिंग के तरह की कोणाकार पत्थर का आकृतियां मिली हैं जिनके ऊपरी भाग में सम्भवतः धागा पिरोने के लिए छिद्र बने हैं। इससे यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि बीमारियों का सम्बन्ध भी तब शिव से माना जाता होगा तथा उनके उपचार के लिए शिवलिंग का धारण करना टोटका के रूप में मानते होंगे।

(2) वैष्णव धर्म

स्पष्ट से तो नहीं कहा जा सकता है कि हड़प्पावासी वैष्णव धर्म को मानते थे क्योंकि विष्णु या उनके अवतारों की मूर्तियां यहां नहीं मिली हैं। पर वहाँ से प्राप्त कुछ मुहरों पर बनी स्वस्तिक की आकृति तथा सूर्य का चिन्ह इस बात का द्योतक है कि पीछे वैष्णव सम्प्रदाय के विकास के साथ जुड़ने वाले ये प्रतीक बीज रूप में जुड़े थे। अतः वैष्णव सम्प्रदाय वहां अस्तित्व में भले ही विकसित रूप में न आया हो पर इसका बीजारोपण इस समय हो चुका था इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता।

(2) शाक्य सम्प्रदाय
शक्ति पूजा प्राची विश्व की प्रायः सभी सभ्यताओं में होती रही है तभी शक्ति को आदिशक्ति माना जाता है। सिंधुघाटी से भी देवी की उपासना के चिन्ह प्राप्त होते हैं। सिन्धु सभ्यता में एक मुहर पर अंकित एक स्त्री की नाभि से निकला हुआ कमलनाल दिखाया गया है। यह उत्पादन एवं उर्वरता का बोधक होता है। शक्ति की उपासना पृथ्वी पूजा से जुड़ी है। वहीं से मातृदेवी की उपासना का प्रारम्भ माना जाता है। यहाँ इन सभी का सम्बन्ध पृथ्वी देवी से और पौधों का सम्बन्ध उर्वरता तथा सृजनशीलता से जोड़ा जा सकता है। इसी प्रकार की एक मूर्ति प्राप्त हुई है जिसमें देवी पालथी मारे बैठी है और उनके दोनों ओर पुजारी भी बैठे हैं तथा इसके सिर पर एक पीपल का वृक्ष उगा है। इसको भी उत्पादकता का ही प्रतीक माना जा सकता है। इसके अतिरिक्त बड़ी संख्या में मातृदेवियों की मूर्तियों का यहां मिलना द्योतक है कि ये लोग देवी के उपासक थे इनकी देवियाँ अविवाहित कन्याएँ होती थीं क्योंकि उनके स्तन सामान्य उभार के तथा गोल और अविकसित दीखते हैं। अनेक प्रकार के आभूषणों तथा केशविन्यास से सज्जित देवियों को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि विविध देवियों की मान्यता यहाँ रही होगी अन्यथा सर्वत्र एक ही प्रकार की देवी मूर्तियाँ प्राप्त होतीं। एक बात और ज्ञात होती है कि ये प्रकृति को मातृदेवी के रूप में मानते थे तभी देवियों के साथ प्रकृति अवयव यहाँ जुड़ा मिला है। प्रकृति के ही सहारे जीव का पोषण होता है सम्भवतः ऐसा इनका विश्वास था।


एक मुहर पर सात औरतों की खड़ी आकृतियाँ बनी हैं और उनके सामने एक बकरा बँधा है जिसके पीछे लोग ढोल बजाते हुए नाच रहे हैं। देवी उपासना की पौराणिक परम्परा में सप्तमातृका एवं नवमातृका के उपासना का वर्णन मिलता है। यहाँ भी सप्तमातृका के उपासना का बोध होता है इस मुहर पर सात औरतों का अंकन इसका बोधक है। दूसरी ओर पौराणिक शाक्तधर्म में देवी के लिए पशुबली की मान्यता समाज में प्रचिलित है। यहाँ एक मुहर पर बँधा बकरा बलि के लिए उपस्थिति प्रतीत होता है। पौराणिक देवी पूजन का आरम्भ इसे मान सकते हैं। यहाँ से प्राप्त नारी मूर्तियों में एक विशेषता मुख्य रूप से दीखती है कि वे निर्वस्त्र हैं। निर्वस्त्रता प्रकृति के खुलेपन तथा उत्पादन का बोधक है। इससे हम कह सकते हैं कि ये प्रकृति को मातृदेवी मानकर उपासना करते थे इनकी पुष्टि यहां के एक मुहर पर प्राप्त एक देवी की मूर्ति से होती है जिसके सिर पर चील की तरह एक पक्षी पंख फैलाए बैठा है। लगता है कि वह मातृदेवी की रक्षा कर रहा हो।

(3) वृक्ष-पूजा


पौराणिक काल से पीपल, नीम, आंवला आदि वृक्षों की पूजा समाज में की जाती है तथा इससे सम्बन्धित अनेक त्योहारों की मान्यता भी दी गई है। सिंधु घाटी की सभ्यता में भी वृक्ष पूजा का चलन था तभी वहाँ से प्राप्त ठीकरों पर अनेक वृक्षों की आकृतियाँ अंकित हैं। इनसे पत्तों के आधार पर पीपल के वृक्ष की पहचान तो हो जाती है पर यह असंभव नहीं कि इसी प्रकार अन्य वृक्षों की भी महत्ता इस समय रही हो। एक ठिकड़े पर बनी आकृति में एक सींगवाले पशु के दो सिर बने हैं जिनके ऊपर पीपल की कोमल पत्तियाँ फूटती हुई दीखती हैं। दीर्घायु, स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होने के कारण आज की तरह उस, समय भी संभवतः पूज्य मान लिया गया होगा। सम्भवतः तब से अब तक उसकी धार्मिक महत्ता बनी रही।

ऋग्वेद में अश्वत्थ की महत्ता का उल्लेख भी पीपल का ही बोधक है। दूसरी मुहर पर देवता की नग्न मूर्ति बनी है। उनके दोनों ओर पीपल की दो शाखाएं अंकित हैं। यहां की एक मुहर वन्दना की मुद्रा में झुकी एक मूर्ति है जिसके बाल लम्बे हैं। उसके पीछे मानव के चेहरे वाले वृष तथा बकरे की मिली जुली आकृति अंकित है। सामने पीपल का पेड़ है लगता है कि ये पशु वृक्ष देवता के वाहन के रूप में अंकित किए गए हैं। शुंगकला में सांची तथा भरहुत में ऐसे वृक्ष देवियों की अनेक आकृतियाँ अंकित हैं जिन्हें दोहद की अवस्था में अंकित यक्षिणी कहा जाता है। इन भिन्नताओं के आधार पर डॉ. मुखर्जी के अनुसार वहां पर दो प्रकार की वृक्ष-पूजा प्रचलित थी-एक वृक्ष की पूजा तथा दूसरे वृक्ष अधिदेवता की पूजा।

(4) पशु-पूजा


वहां कि मुहरों पर अनेक प्रकार के पशुओं का अंकन मिला है। विविधता और संख्या में पशु अंकन की अधिकता को देखकर ऐसा लगता है कि ये पशुओं को देवता का अंश मानते थे। यह विश्वास है कि पहले पशुओं के रूप में देवताओं को स्वीकार किया जाता था। पीछे इनका मावनवीय रूप अंगीकार किया गया। इसीसे देवता प्रत्येक पुरातन सभ्यता में पशु-पूजा का चलन मिलता है। इसका प्रमाण है कि प्रायः प्रत्येक देवता के साथ एक वाहन का जुड़ा होना आज भी स्वीकार किया जाता है। दूसरे इस सभ्यता में हम देखते हैं मनुष्यों के रूप में निर्मित देवताओं के सिर पर सींग धारण करने की कल्पना यहां किया गया था। सींग को शक्ति का प्रतीक माना जाता था इसीसे इसको मानव रूप धारी देव भी कहते थे। इसीलिए आज जिन्हें हम देवतावाहन मानते हैं जैसे-गैंडा, बैल, हाथी, भैंस, कुत्ता आदि इनके भी चित्रण यहां की मुहरों पर मिलते हैं।

बैल की पूजा विशेष रूप से यहां होती होगी क्योंकि इसके विविध प्रकारों का अंकन यहां के मुहरों पर बहुतायाद से दीखता है जैसे एक श्रृंगी, कूबड़दार, लम्बी लटकी लोरदार आदि। लगता है शिव के साथ बैल का सम्बन्ध इसी सभ्यता से शुरू हुआ था क्योंकि यहां इन दोनों की साथ आकृतियाँ मुहरों पर बहुलता से अंकित मिलती हैं। कुछ पशु ऐसे भी बने हैं जो काल्पनिक प्रतीत होते हैं। आज भी उनका वास्तविक शिवरूप प्राप्त नहीं होता। इनमें हम ऐसे पशुओं को ले सकते हैं जिनकी रचना विभिन्न पशुओं के अंगों के योग से की गई हैं। अन्यथा ये मानव और पशु की मिली जुली मूर्ति हों। एक ठिकड़े पर मानव सिर से युक्त बकरे की आकृति है। एक पर ऐसा पशु है जिसका सिर गैंडे का पीठ किसी दूसरी पशु की पूंछ किसी अन्य पशु की है। कुछ पशुओं की ऐसी आकृतिया यहां बनी हैं जिनके सामने नाद बना है और वे उसमें से कुछ खाते हुए दीखते हैं। कितने पशुओं की खोपड़ी धूपदानी की तरह कटोरानुमा बनी है। इनमें सम्भवतः पूजा के समय धूप जलाया जाता होगा क्योंकि उनके किनारों पर धुंए के चिन्ह पड़े हैं। लगता है कि पशु-पूजन में धूप जलाने का भी प्रचलन था।

(5) जैन धर्म


सिंधु घाटी की मूर्तियों में बैल की आकृतियाँ विशेष रूप से मिलती हैं। ‘वृषभ’ का अर्थ है बैल। आदिनाथ या वृषभनाथ जो जैन धर्म के प्रवर्तक थे उनका चिन्ह बैल है। सिंधु घाटी से प्राप्त बैल की आकृति सूचक है कि उस समय जैनधर्म का बीजारोपण हो चुका होगा। यहां से प्राप्त एक नंगी कबन्ध मूर्ति जो ग्रेनाइट पत्थर की बनी है उसे कुछ विद्वान जैन धर्म से सम्बन्धित मूर्ति मानते हैं क्योंकि जैनियों कि नग्न मूर्तियों की तरह यह है। दिगम्बर समुदाय वाले जैन भिक्षु नग्न ही रहते हैं। तीसरे यहां की एक मूर्ति को मार्शल ने कार्योत्सर्ग नामक योगासन में खड़ा बतलाया है। इससे लगता है कि योग की क्रिया जो जैनियों में व्यापक थी यहीं से प्रारम्भ हुई। इसलिए भी यह माना जा सकता है कि उक्त मूर्ति का सम्बन्ध जैन धर्म से रहा होगा।



मान्यता और विश्वास


(अ)-स्वच्छता– इसके ये पुजारी थे। इसी से यहां विशाल स्नानागार तथा गर्म स्नानागार बने हैं। ये सामूहिक स्नान के लिए बनाए गए। व्यक्तिगत स्नान के लिए प्रत्येक घर के आंगन में स्नानगृह होता था। लगता है उत्सवों तथा पर्वों पर आज के पौराणिक धर्म की मान्यता की तरह लोग सामूहिक स्नान करते होंगे। तभी विशाल स्नान घर की आवश्यता पड़ी होगी।

(ब) मृतक संस्कार– मृतक क्रिया में इनका विश्वास था। मरने के बाद ये शरीर की क्रिया करते थे। उसे गाड़ते या जलाते थ। जलाने के बाद बची हुई हड्डियों को एकत्रित करके किसी बर्तन में रखकर उसे प्रवाहित कर देते थे। कभी-कभी तो इसे गाड़ भी देते थे। जिन मृतकों को गाड़ते थे उनके साथ उनकी प्रिय वस्तुएं भी गाड़ दी जाती थीं। यही प्रथा प्राचीन मिश्र के पिरामिडों में भी दीखती है। इसका प्रमाण है कि हड़प्पा और बलुचिस्तान में सर्वांगीण शव-निखात प्राप्त हुए हैं।

(स) जादू-टोना– यहां से प्राप्त टिकटों पर कुछ लिखा हुआ है। लगता है ये जादुई मंत्र होंगे। इनके द्वारा लोग अपने कार्यों को सिद्ध करते होंगे। इसी प्रकार लिंगों के नीचे गड़े ताबीज जिन पर कुछ अंकित है जादू की क्रिया का होना सिद्ध करते हैं। सम्भव है ये ताबीजों को इसलिए पहनते होंगे कि भवबाधा इन्हें न सतावे। इसी प्रकार कुछ ऐसे ठिकड़े भी मिले हैं जिन पर विचित्र प्रकार के चिन्ह बने हैं। ये तांत्रिक चिन्हों की तरह हैं जिस प्रकार का प्रयोग आज तंत्र में होता है। लगता है कि इनको विश्वास था कि इनके द्वारा बाधाओं के निराकरण में सहायता मिलती है।

(द) बलि प्रथा– देवताओं को प्रसन्न करने के लिए बलि का प्रयोग किया जाता था। इसके संदर्भ में जैसा हमने ऊपर देखा है कि सप्तमातृकाओं के सामने एक बकरा बंधा है, यह बलि पशु ही रहा होगा।

(ग) धार्मिक पर्व और उत्सव – यहां कुछ मुहरों पर नृत्य,. संगीत के सामूहिक अवस्था का अंकन हुआ है। लगता है किसी विशेष उत्सव या पर्व पर इस प्रकार के सामूहिक आमोद-प्रमोद की अवस्था का चलन था। सामूहिक स्नान के लिए जलकुण्डों का होना सिद्घ करता है कि उस समय पर्व मनाए जाते थे जहां लोग एक साथ एकत्रित होकर आज की पौराणिक मान्यता की तरह सामाजिक रूप से स्नान आदि धार्मिक क्रियाएं करते होंगे।


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