Friday 11 September 2015

युग निर्माता तुलसीदास

गोस्वामी तुलसीदास न केवल हिन्दी के वरन् उत्तर भारत के सर्वश्रेष्ठ कवि एवं विचारक माने जा सकते हैं। महाकवि अपने युग का ज्ञापक एवं निर्माता होता है। इस कथन की पुष्टि गोस्वामी जी की रचनाओं से सवा सोलह आने होती है। जहां संसार के अन्य कवियों ने साधु-महात्माओं के सिद्धांतों पर आसीन होकर अपनी कठोर साधना या तीक्ष्ण अनुभूति तथा घोर धार्मिक कट्टरता या सांप्रदायिक असहिष्णुता से भरे बिखरे छंद कहे हैं और अखंड ज्योति की कौंध में कुछ रहस्यमय, धुंधली और अस्फुट रेखाएं अंकित की हैं अथवा लोक-मर्मज्ञ की हैसियत से सांसारिक जीवन के तप्त या शीतल एकांत चित्र खींचे हैं, जो धर्म एवं अध्यात्म से सर्वथा उदासीन दिखाई देते हैं, वहीं गोस्वामीजी ही ऐसे कवि हैं, जिन्होंने इन सभी के नानाविध भावों को एक सूत्र में गुफित करके अपना अनुपमेय साहित्यिक उपहार प्रदान किया है।काव्य प्रतिभा के विकास-क्रम के आधार पर उनकी कृतियों का वर्गीकरण इसप्रकार हो सकता है – प्रथम श्रेणी, द्वितीय श्रेणी और तृतीय श्रेणी। प्रथम श्रेणी में उनके काव्य-जीवन के प्रभातकाल की वे कृतियां आती हैं जिनमें एक साधारण नवयुवक की रसिकता, सामान्य काव्यरीति का परिचय, सामान्य सांसारिक अनुभव, सामान्य सहृदयता तथा गंभीर आध्यात्मिक विचारों का अभाव मिलता है। इनमें वर्ण्य विषय के साथ अपना तादात्म्य करके स्वानुभूतिमय वर्णन करने की प्रवृत्ति अवश्य वर्तमान है, इसी से प्रारंभिक रचनाएं भी इनके महाकवि होने का आभास देती हैं। इस श्रेणी में रामललानहछू, वैराग्यसंदीपनी, रामाज्ञा-प्रश्न और जानकी-मंगल परिगणनीय हैं।

दूसरी श्रेणी में उन कृतियों को समझना चाहिए जिनमें कवि की लोक-व्यापिनी बुद्धि, उसकी सद्ग्राहिता, उसकी काव्य के सूक्ष्म स्वरुप की पहचान, व्यापक सहृदयता, अनन्य भक्ति और उसके गूढ़ आध्यात्मिक विचार विद्यमान है। इस श्रेणी की कृतियों को हम तुलसी के प्रौढ़ और परिप काव्य-काल की रचनाएं मानते हैं। इसके अंतर्गत रामचरितमानस, पार्वती-मंगल, गीतावली, कृष्ण-गीतावली का समावेश होता है।

अंतिम श्रेणी में उनकी उत्तरकालीन रचनाएं आती हैं। इनमें कवि की प्रौढ़ प्रतिभा ज्यों की त्यों बनी हुई है और कुछ में वह आध्यात्मिक विचारों को प्राधान्य देता हुआ दिखाई पड़ता है। साथ ही वह अपनी अंतिम जरावस्था का संकेत भी करता है तथा अपने पतनोन्मुख युग को चेतावनी भी देता है। विनयपत्रिका, बरवै रामायण, कवितावली, हनुमान बाहुक और दोहावली इसी श्रेणी की कृतियां मानी जा सकती हैं।

उसकी दीनावस्था से द्रवीभूत होकर एक संत-महात्मा ने उसे राम की भक्ति का उपदेश दिया। उस बालक नेबाल्यकाल में ही उस महात्मा की कृपा और गुरु-शिक्षा से विद्या तथा रामभक्ति का अक्षय भंडार प्राप्त कर लिया। इसके पश्चात् साधुओं की मंडली के साथ, उसने देशाटन करके प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त किया।

गोस्वामी जी की साहित्यिक जीवनी के आधार पर कहा जा सकता है कि वे आजन्म वही रामगुण -गायक बने रहे जो वे बाल्यकाल में थे। इस रामगुण गान का सर्वोत्कृष्ट रुप में अभिव्यक्त करने के लिए उन्हें संस्कृत-साहित्य का अगाध पांडित्य प्राप्त करना पड़ा। रामललानहछू, वैराग्य-संदीपनी और रामाज्ञा-प्रश्न इत्यादि रचनाएं उनकी प्रतिभा के प्रभातकाल की सूचना देती हैं। इसके अनंतर उनकी प्रतिभा रामचरितमानस के रचनाकाल तक पूर्ण उत्कर्ष को प्राप्त कर ज्योतिर्मान हो उठी। उनके जीवन का वह व्यावहारिक ज्ञान, उनका वह कला-प्रदर्शन का पांडित्य जो मानस, गीतावली, कवितावली, दोहावली और विनयपत्रिका आदि में परिलक्षित होता है, वह अविकसित काल की रचनाओं में नहीं है।

उनके चरित्र की सर्वप्रधान विशेषता है उनकी रामोपासना।धरम के सेतु जग मंगल के हेतु भूमि ।भार हरिबो को अवतार लियो नर को ।नीति और प्रतीत-प्रीति-पाल चालि प्रभु मान,लोक-वेद राखिबे को पन रघुबर को ।।(कवितावली, उत्तर, छंद० ११२)

काशी-वासियों के तरह-तरह के उत्पीड़न को सहते हुए भी वे अपने लक्ष्य से भ्रष्ट नहीं हुए। उन्होंने आत्मसम्मान की रक्षा करते हुए अपनी निर्भीकता एवं स्पष्टवादिता का संबल लेकर वे कालांतर में एक सिद्ध साधक का स्थान प्राप्त किया।गोस्वामी तुलसीदास प्रकृत्या एक क्रांतदर्शी कवि थे। उन्हें युग-द्रष्टा की उपाधि से भी विभूषित किया जाना चाहिए था। उन्होंने तत्कालीन सांस्कृतिक परिवेश को खुली आंखों देखा था और अपनी रचनाओं में स्थान-स्थान पर उसके संबंध में अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त की है। वे सूरदास, नन्ददास आदि कृष्णभक्तों की भांति जन-सामान्य से संबंध-विच्छेद करके एकमात्र आराध्य में ही लौलीन रहने वाले व्यक्ति नहीं कहे जा सकते बल्कि उन्होंने देखा कि तत्कालीन समाज प्राचीन सनातन परंपराओं को भंग करके पतन की ओर बढ़ा जा रहा है। शासकों द्वारा सतत शोषित दुर्भिक्ष की ज्वाला से दग्ध प्रजा की आर्थिक और सामाजिक स्थिति किंकर्त्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में पहुंच गई है –

खेती न किसान को,भिखारी को न भीख, बलि,वनिक को बनिज न, चाकर को चाकरी ।जीविका विहीन लोगसीद्यमान सोच बस,कहैं एक एकन सोंकहाँ जाई, का करी ।।

समाज के सभी वर्ग अपने परंपरागत व्यवसाय को छोड़कर आजीविका-विहीन हो गए हैं। शासकीय शोषण के अतिरिक्त भीषण महामारी, अकाल, दुर्भिक्ष आदि का प्रकोप भी अत्यंत उपद्रवकारी है। काशीवासियों की तत्कालीन समस्या को लेकर यह लिखा –

संकर-सहर-सर, नारि-नर बारि बर,विकल सकल महामारी मांजामई है ।उछरत उतरात हहरात मरि जात,भभरि भगात, थल-जल मीचुमई है ।।

उन्होंने तत्कालीन राजा को चोर और लुटेरा कहा –

गोड़ गँवार नृपाल महि,यमन महा महिपाल ।साम न दाम न भेद कलि,केवल दंड कराल ।।

साधुओं का उत्पीड़न और खलों का उत्कर्ष बड़ा ही विडंबनामूलक था –

वेद धर्म दूरि गये,भूमि चोर भूप भये,साधु सीद्यमान,जान रीति पाप पीन की।

उस समय की सामाजिक अस्त-व्यस्तता का यदि संक्षिप्ततम चित्र –

प्रजा पतित पाखंड पाप रत,अपने अपने रंग रई है ।साहिति सत्य सुरीति गई घटि,बढ़ी कुरीति कपट कलई है।सीदति साधु, साधुता सोचति,खल बिलसत हुलसत खलई है ।।

उन्होंने अपनी कृतियों के माध्यम से लोकाराधन, लोकरंजन और लोकसुधार का प्रयास किया और रामलीला का सूत्रपात करके इस दिशा में अपेक्षाकृत और भी ठोस कदम उठाया। गोस्वामी जी का सम्मान उनके जीवन-काल में इतना व्यापक हुआ कि अब्दुर्रहीम खानखाना एवं टोडरमल जैसे अकबरी दरबार के नवरत्न, मधुसूदन सरस्वती जैसे अग्रगण्य शैव साधक, नाभादास जैसे भक्त कवि आदि अनेक समसामयिक विभूतियों ने उनकी मुक्तकंठ से प्रशंसा की। उनके द्वारा प्रचारित राम और हनुमान की भक्ति भावना का भी व्यापक प्रचार उनके जीवन-काल में ही हो चुका था।रामचरितमानस ऐसा महाकाव्य है जिसमें प्रबंध-पटुता की सर्वांगीण कला का पूर्ण परिपाक हुआ है में उन्होंने उपासना और साधना-प्रधान एक से एक बढ़कर विनयपत्रिका के पद रचे और लीला-प्रधान गीतावली तथा कृष्ण-गीतावली के पद। उपासना-प्रधान पदों की जैसी व्यापक रचना तुलसी ने की है, वैसी इस पद्धति क कवि सूरदास ने भी नहीं की। 

काव्य-गगन के सूर्य तुलसीदास ने अपने अमर आलोक से हिन्दी साहित्य-लोक को सर्वभावेन देदीप्यमान किया। उन्होंने काव्य के विविध स्वरुपों तथा शैलियों को विशेष प्रोत्साहन देकर भाषा को खूब संवारा और शब्द-शक्तियों, ध्वनियों एवं अलंकारों के यथोचित प्रयोगों के द्वारा अर्थ क्षेत्र का अपूर्व विस्तार भी किया। उनकी साहित्यिक देन भव्य कोटि का काव्य होते हुए भी उच्चकोटि का ऐसा शास्र है, जो किसी भी समाज को उन्नयन के लिए आदर्श, मानवता एवं आध्यात्मिकता की त्रिवेणी में अवगाहन करने का सुअवसर देकर उसमें सत्पथ पर चलने की उमंग भरता है।

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