Wednesday 7 October 2015

निःशस्त्र सेनानी



माखनलाल चतुर्वेदी


‘सुजन, ये कौन खड़े है ?’ बन्धु ! नाम ही है इनका बेनाम ।
‘कौन करते है ये काम ?’ काम ही है बस इनका काम ।

‘बहन-भाई’, हां कल ही सुना, अहिंसा आत्मिक बल का नाम,
‘पिता! सुनते है श्री विश्वेश, जननि?’ श्री प्रकॄति सुकॄति सुखधाम।

हिलोरें लेता भीषण सिन्धु पोत पर नाविक है तैयार
घूमती जाती है पतवार, काटती जाती पारावार ।

‘पुत्र-पुत्री है?’ जीवित जोश, और सब कुछ सहने की शक्ति;
‘सिद्धि’- पद-पद्मों मे स्वातन्त्र्य-सुधा-धारा बहने की शक्ति।

‘हानि?’ यह गिनो हानि या लाभ, नहीं भाती कहने की शक्ति,
‘प्राप्ति ?’- जगतीतल की अमरत्व, खड़े जीवित रहने की शक्ति।

विश्व चक्कर खाता है और सूर्य करने जाता विश्राम,
मचाता भावों का भू-कम्प, उठाता बांहें, करता काम ।

‘देह ?’- प्रिय यहाँ कहाँ परवाह टँगे शूली पर चर्मक्षेत्र,
‘गेह ?’- छोटा-सा हो तो कहूँ विश्व का प्यारा धर्मक्षेत्र !

‘शोक ?’- वह दुखियों की आवाज़ कँपा देती है मर्मक्षेत्र,
‘हर्ष भी पाते है ये कभी ?’ -तभी जब पाते कर्मक्षेत्र।

फिसलते काल-करों से शस्त्र, कराली कर लेती मुँह बन्द;
पधारे ये प्यारे पद-पद्म, सलोनी वायु हुई स्वच्छंद ।

‘क्लेश ?’- वह निष्कर्मों का साथ कभी पहुँचा देता है क्लेश;
लेश भी कभी न की परवाह जानते इसे स्वयम सर्वेश।

‘देश ?’- यह प्रियतम भारत देश, सदा पशु-बल से जो बेहाल,
‘वेश ?’- यदि वॄन्दावन में रहे कहाँ जावे प्यारा गोपाल ।

द्रौपदी भारत माँ का चीर, बढ़ाने दौड़े यह महाराज,
मान लें, तो पहनाने लगूँ, मोर-पंखों का प्यारा ताज।

उधर वे दुःशासन के बन्धु, युद्ध-भिक्षा की झोली हाथ;
इधर ये धर्म-बन्धु, नय-बन्धु, शस्त्र लो,कहते है-‘दो साथ।’

लपकती है लाखों तलवार, मचा डालेंगी हाहाकार,
मारने-मरने की मनुहार, खड़े है बलि-पशु सब तैयार।

किन्तु क्या कहता है आकाश ? हॄदय ! हुलसो सुन यह गुंजार,
‘पलट जाये चाहे संसार, न लूंगा इन हाथों हथियार।’

‘जाति?’- वह मजदूरों की जाति, ‘मार्ग ?’ यह काँटों वाला सत्य;
‘रंग?’ -श्रम करते जो रह जाय, देख लो दुनिया भर के भॄत्य ।

‘कला?’- दुखिःयों की सुनकर तान, नॄत्य का रंग-स्थल हो धूल;
‘टेक ?’- अन्यायों का प्रतिकार, चढ़ाकर अपना जीवन-फ़ूल ।

‘क्रान्तिकर होंगे इनके भाव ?’ विश्व में इसे जानता कौन?
‘कौनसी कठिनाई है?’- यहीं, बोलते है ये भाषा मौन !

‘प्यार ?’-उन हथकड़ियों से और कॄष्ण के जन्म-स्थल से प्यार !
‘हार ?’- कन्धों पर चुभती हुई अनोखी जंजीरें है हार !

‘भार ?’- कुछ नहीं रहा अब शेष, अखिल जगतीतल का उद्धार !
‘द्वार ?’ उस बड़े भवन का द्वार, विश्व की परम मुक्ति का द्वार !

पूज्यतम कर्म-भूमि स्वच्छंद, मची है डट पड़ने की धूम;
दहलता नभ मंडल ब्रम्हाण्ड, मुक्ति के फट पड़ने की धूम !

( १९१३ , हिमतरंगिणी)
(महात्मा गाँधी के दक्षिण अफ़्रीका संग्राम पर)

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