Wednesday 7 October 2015

वीरों का कैसा हो बसंत


रचनाकार: सुभद्रा कुमारी चौहान


आ रही हिमालय से पुकार

है उदधि गरजता बार बार

प्राची पश्चिम भू नभ अपार

सब पूछ रहे हैं दिग-दिगन्त-

वीरों का कैसा हो बसन्त।।


फूली सरसों ने दिया रंग

मधु लेकर आ पहुँचा अनंग

वधु वसुधा पुलकित अंग अंग

है वीर देश में किन्तु कन्त-

वीरों का कैसा हो बसन्त।।


भर रही कोकिला इधर तान

मारू बाजे पर उधर गान

है रंग और रण का विधान

मिलने को आए हैं आदि अन्त-

वीरों का कैसा हो बसन्त।।


गलबांहें हों या हो कृपाण

चलचितवन हो या धनुषबाण

हो रसविलास या दलितत्राण

अब यही समस्या है दुरन्त-

वीरों का कैसा हो बसन्त।।


कह दे अतीत अब मौन त्याग

लंके तुझमें क्यों लगी आग

ऐ कुरुक्षेत्र अब जाग जाग

बतला अपने अनुभव अनन्त-

वीरों का कैसा हो बसन्त।।



हल्दीघाटी के शिला खण्ड

ऐ दुर्ग सिंहगढ़ के प्रचण्ड

राणा ताना का कर घमण्ड

दो जगा आज स्मृतियाँ ज्वलन्त-

वीरों का कैसा हो बसन्त।।


भूषण अथवा कवि चन्द नहीं

बिजली भर दे वह छन्द नहीं

है कलम बंधी स्वच्छन्द नहीं

फिर हमें बताए कौन हन्त-

वीरों का कैसा हो बसन्त।

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